You can edit almost every page by Creating an account. Otherwise, see the FAQ.

सिंहेश्वर

EverybodyWiki Bios & Wiki से
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

सिंहेश्वर स्थान स्थित शिवलिंग की स्थापना भगवान विष्णु ने की थी। इस शिवलिंग की पूजा से अनंत गंगा स्नान और अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। सिंहेश्वर स्थान के प्रांगण में हमेशा जय बाबा सिंहेश्वर और हर हर महादेव की जय-जयकार होती रहती है ।यहां भक्तों की हर मनोकामनाएं पूर्ण होती है ।

सिंहेश्वर स्थान

भगवान विष्णु द्वारा स्थापित सिंहेश्वर स्थान का पवित्र शिव ज्योतियुक्त शिवलिंग
स्थान
देश: भारत
राज्य: बिहार
जिला: मधेपुरा
इतिहास
सृजनकर्त्ता: भगवान शिव के क्रोध को शांत करने के लिए इस मंदिर के शिवलिंग की स्थापना और पूजा भगवान विष्णु ने की थी ।
त्रेता युग में राजादशरथ (अयोध्या के राजा) अपनी तीन पत्नियों के साथ यहां आए और ऋषि श्रृंगी को संतान प्राप्ति हेतु पुत्रेष्टि यज्ञ करने के लिए प्रसन्न किया । इसी सिंहेश्वर मंदिर के प्रांगण में पुत्रेष्ठी यज्ञ संपन्न हुआ। इसी यज्ञ के प्रभाव और सिंहेश्वर बाबा के आशीर्वाद से भगवान राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ने महाराज दशरथ के घर जन्म लिया ।

भगवान शिव के क्रोध को शांत करने के लिए इस मंदिर के शिवलिंग की स्थापना और पूजा भगवान विष्णु ने की थी । |त्रेता युग में राजादशरथ (अयोध्या के राजा) अपनी तीन पत्नियों के साथ यहां आए और ऋषि श्रृंगी को संतान प्राप्ति हेतु पुत्रेष्टि यज्ञ करने के लिए प्रसन्न किया । इसी सिंहेश्वर मंदिर के प्रांगण में पुत्रेष्ठी यज्ञ संपन्न हुआ। इसी यज्ञ के प्रभाव और सिंहेश्वर बाबा के आशीर्वाद से भगवान राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ने महाराज दशरथ के घर जन्म लिया ।

बाबा सिंहेश्वर के अदभुत श्रृंगार रूपों के दर्शन[सम्पादन]

• सिंघेश्वर स्थान का पवित्र शिवमय शिवलिंंग ।

सिंहेश्वर बाबा का अदभुत श्रृंगार ।

सिंहेश्वर बाबा का सबसे नजदीकी दृश्य और अदभुत स्वरूप ।

सिंहेश्वर स्थान का इतिहास[सम्पादन]

मंदिर काफी पुराना एवं ऐतिहासिक महत्व का है। मंदिर का नीचे का भाग किसी पहाड़ से जुड़ा हुआ है। शिवलिंग स्थापना के संदर्भ में कोई प्रामाणिक दस्तावेज नहीं है लेकिन इस बारे में कई किदवंती प्रचलित है। प्रचलित एक किदवंती के अनुसार कई सौ साल पहले यब क्षेत्र घने जंगल से घिरा हुआ था। यहां अगल-बगल के गोपालक अपनी गायों को चराने आते थे। एक कुंवारी कामधेनु गाय प्रत्येक दिन एक निश्चित जगह पर खड़ा होती तो स्वतः ही उसके थान से दूध गिरने लगती थी। एक दिन गोपालक ने यह दृश्य खुद देख लिया। सबों ने मिलकर खुदाई की तो शिवलिंग मिला। वहीं प्रचलित एक किमवदंती के अनुसार एक बार भगवान शिवहिरण का वेष धारण कर पृथ्वी लोक चले आए। इधर सभी देवी देवता उन्हें ढूंढने लगे इसी बीच पता चला कि भगवान शिव पृथ्वीलोक पर हैं। भगवान ब्रह्मा एवं बिष्णु उन्हें ले जाने पृथ्वीलोक आ गए जहां हिरण तो मिला लेकिन हिरण रूपी भगवान शिव जाने को तैयार न हुए। इसपर भगवान ब्रह्मा एवं बिष्णु ने जबरन ले जाने चाहा लेकिन हिरण गायब हो गए और आकाशवाणी हुई कि भगवान शिव आपको नहीं मिलेंगे। बताया जाता है भगवान विष्णु के द्वारा स्थापित सिंग ही बाबा सिंहेश्वर नाथ है। सिंघेश्वर स्थान मंदिर के निर्माण से संबंधित विभिन्न कहानियां और मिथक प्रचलित हैं। इसका संदर्भ वराह पुराण में भी मिलता है। जगह खोदी गई और उन्होंने एक शिवलिंग की खोज की। तब इस स्थान को भगवान शिव में आस्था रखने वाले लोगों द्वारा एक छोटे से मंदिर के रूप में बनवाया गया था। ऐसा माना जाता है कि यह स्थान कभी रीस की तपोभूमि हुआ करता था। एक अन्य मिथक के अनुसार, देवी काली, लक्ष्मी और सरस्वती देवी दुर्गा के रूप में प्रकट हुईं और उन्हें सिंहेश्वरी (शेर सवार) कहा गया। उनके समकक्ष भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महाकाल शंकर ने भगवान सिंहेश्वर के शाश्वत रूप में प्रकट हुए। ऐसा कहा जाता है कि रामायण काल ​​में राजा दशरथ ने इस स्थान पर एक यज्ञ किया था और उसके बाद उन्हें चार पुत्रों की प्राप्ति हुई थी।. साथ ही पुराने समय में बनाए गए सात 'हवन कुंड' अब नष्ट हो चुके टैंक बन गए हैं। भक्त शिव की मूर्ति, शिवलिंग की पूजा करते हैं। लोग भगवान के लिए प्रसाद लाते हैं और मूर्ति को दूध से स्नान कराया जाता है.

मंदिर की विशेषताएं और वास्तुकला[सम्पादन]

मरम्मती के लिए एक बार जब अभियंताओं के दल ने खुदाई की तो देखा गया कि कुछ मीटर नीचे कोई ठोस चीज है। इस वजह से खुदाई नहीं हो पा रही थी।अभियंताओं के दल ने कहा कि शिवलिंग किसी पहाड़ के अग्रभाग पर स्थित है। बताया जाता है कि इसी पहाड़ की वजह से ही कोसी के रौद्र रूप के वावजूद मंदिर को कभी कोई नुकसान नही पहुंचा है।


सिंहेश्वर के पास उग्रतारा शक्ति पीठ[सम्पादन]

तंत्र साधना के लिए सम्पूर्ण विश्व में विख्यात है महिषी का उग्रतारा मंदिर →

विश्व के प्रमुख शक्तिपीठों में सहरसा जिले के महिषी का उग्रतारा स्थान प्रमुख है। मान्यता है कि भगवती सती का यहां बायां नेत्र गिरा था। यह जगह तंत्रसाधना के लिए विख्यात है। विश्व के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में सहरसा जिले के महिषी में अवस्थित उग्रतारा स्थान प्रमुख है। मंडन मिश्र की पत्नी विदुषी भारती से आदि शंकराचार्य का शास्त्रार्थ यहीं हुए थे जिसमें शंकराचार्य को पराजित होना पड़ा था। इसी स्थान में माता उग्रतारा की भक्त विदुषी भारती ने परम विद्वान आदि शंकराचार्य को पराजित किया था। सहरसा से 16 किलोमीटर दूर इस शक्ति स्थल पर सालों भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है लेकिन नवरात्र के दिनों में और प्रति सप्ताह मंगलवार को यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ होती है। उग्रतारा स्थान के गर्भगृह में मां उग्रतारा की पवित्र मूर्ति।

शक्ति पुराण,तंत्र चुरामणि,शिव पुराण, देवी भागवत पुराण, कालिका पुराण एवं वेद में इस स्थान का वर्णन के अनुसार माहामाया सती के शरीर को लेकर शिव पागलों की तरह ब्रह्मांड में विचर रहे थे। इससे होने वाले प्रलय की आशंका को दखते हुए विष्णु द्वारा माहामाया के मृत शरीर को अपने सुदर्शन से 52 भागों में विभक्त कर दिया गया था। सती के शरीर का जो हिस्सा धरातल पर जहां गिरा उसे सिद्ध पीठ के रूप में प्रसिद्धि मिली। महिषी उग्रतारा स्थान के संबंध में ऐसी मान्यता है कि सती का बायां नेत्र भाग यहां गिरा था। मान्यता यह भी है कि ऋषि वशिष्ठ ने उग्रतप की बदौलत भगवती को प्रसन्न किया। उनके प्रथम साधक की इस कठिन साधना के कारण ही भगवती, वशिष्ठ आराधिता उग्रतारा के नाम से जानी जाती हैं। उग्रतारा नाम के पीछे दूसरी मान्यता है कि माता अपने भक्तों के उग्र से उग्र व्याधियों का नाश करने वाली है। जिस कारण भक्तों द्वारा इनकों उग्रतारा का नाम दिया गया। यहाँ माँ अपने तीन मुख्य स्वरूपों में विद्यमान महिषी में भगवती तीनों स्वरूप उग्रतारा, नील सरस्वती एवं एकजटा रूप में विद्यमान है। ऐसी मान्यता है कि बिना उग्रतारा के आदेश के तंत्र सिद्धि पूरी नहीं होती है। यही कारण है कि तंत्र साधना करने वाले लोग यहां अवश्य आते हैं। नवरात्रा में अष्टमी के दिन यहां साधकों की भीड़ लगती है।

उग्रतारा स्थान जाने हेतु यातायात की व्यवस्थाएं[सम्पादन]

सहरसा से सड़क मार्ग से जुड़ा है मंदिर। यहां पहुंचने के इच्छुक लोग सहरसा से आटो या फिर बस से यहां पहुंचते हैं। बाकी तीन ओर से यह स्थान तटबंध से घिरा है। एक ओर से ही पहुंचने का रास्ता होने के बावजूद यहां पहुंचना कठिन नहीं है। यहां बिहार के अतिरिक्त नेपाल के श्रद्धालु भी बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। बंगाल के साधक भी यहां वर्षभर पहुंचते रहते हैं।

उग्रतारा स्थान का इतिहास[सम्पादन]

औरंगजेब भी नहीं तुड़वा सका था यह मंदिर । मंदिर का निर्माण सन 1735 में रानी पद्मावती ने कराया था। इसकी मरम्मत अक्सर कराई जाती है। यह स्थल पर्यटन विभाग के मानचित्र पर है।

आदि शंकराचार्य हुए थे यहाँ पर शस्त्रार्थ में परजित[सम्पादन]

ब्रह्मचारी आदि शंकराचार्य से मंडन मिश्र की पत्नी ने पूछे कामशास्त्र के सवाल, एक माह बाद मिले जवाब सनातन धर्म को एक करने वाले आदि शंकराचार्य ने भारतवर्ष के सभी विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। भगवान शिव के अवतार माने जाने वाले शंकराचार्य ने प्रकांड विद्वान मंडन मिश्र शास्त्रार्थ में पराजित किया तो उनकी पत्नी ने शंकराचार्य को चुनौती दे दी। आदि शंकराचार्य की जयंती के मौके पर जानते हैं उनके जीवन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं के बारे में। भगवान शंकर के वरदान से जन्में शंकर सनातन धर्म के अनुयायियों में प्रचलित कथाओं के अनुसार केरल के काषल गांव के ब्राह्मण शिवगुरु भट्ट अपनी पत्नी सुभद्रा के साथ निवास करते थे। विवाह के काफी समय बाद भी कोई संतान नहीं होने पर दंपति ने भगवान शिव की आराधना शुरू कर दी। कहा जाता है कि भोलेनाथ के वरदान के कारण निश्चित समय बाद 788 ईस्वीं में शिवगुरु भट्ट को पुत्र की प्राप्ति हुई। शिवगुरु ने बेटे का नाम शंकर रखा। शंकर की बाल्यवस्था में ही पिता का देहांत हो गया।बाल्यकाल में ही प्रकांड विद्वान शुरुआत से ही धर्म संस्कृति पर रुचि रखने वाले शंकर ने 6 वर्ष की उम्र में ही पंडित की उपाधि हासिल कर ली। 8 वर्ष की उम्र में वह प्रकांड विद्वान हो गए और आचार्य शंकर के नाम से प्रसिद्ध हो गए। इसी अवस्था में उन्होंने सन्यास धारण कर लिया। सन्यास के बाद आचार्य शंकर ने भारत भ्रमण करना शुरू कर दिया। मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हराया प्रचलित कथा के अनुसार भ्रमण के दौरान शंकराचार्य काशी पहुंचे। यहां के बाद वह मंडन मिश्र के गांव पहुंचे। कहा जाता है कि शंकराचार्य और मंडनमिश्र के बीच तालवन में शास्त्रार्थ शुरू हुआ। मंडन मिश्र की पत्नी उभय भारती ने शास्त्रार्थ की मध्यस्थता की। शंकराचार्य से मंडन मिश्र शास्तार्थ में हार गए तो उभयभारती ने शंकराचार्य से शास्त्रार्थ शुरू किया। उभयभारती ने बाल ब्रह्मचारी शंकराचार्य से कामशास्त्र के सवाल पूछने शुरू कर दिए। उभयभारती को जवाब देने में लगा एक माह ब्रह्मचारी होने के कारण शंकराचार्य को कामशास्त्र का अनुभव और ज्ञान नहीं था। उन्होंने उभयभारती से एक माह का समय मांगा और दूसरे शरीर में प्रवेश कर शंकराचार्य ने कामशास्त्र का ज्ञान हासिल कर लिया। दोबारा शास्त्रार्थ शुरू हुआ तो उभयभारती शंकराचार्य के जवाबों से चकित रह गईं। उभयभारती ने शास्त्रार्थ में अपनी हार स्वीकार कर ली। इसके बाद शंकराचार्य ने सनातन धर्म के प्रचार प्रसार के लिए दिग्विजय यात्रा की शुरुआत की। शंकराचार्य ने केदारनाथ के पास 32 वर्ष की उम्र में अपना शरीर त्याग दिया।

आदि शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में विदुषी भारती ने हराया[सम्पादन]

मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच हुए शास्त्रार्थ में शंकराचार्य विजयी हुए। लेकिन मिश्र की पत्नी भारती ने शंकराचार्य से कहा, मंडन मिश्र विवाहित हैं। हम दोनों मिलकर अर्धनारीश्वर की तरह एक इकाई बनाते हैं। आपने अभी आधे भाग को हराया है। अभी मुझसे शास्त्रार्थ करना बाकी है। कहते हैं कि शंकराचार्य ने उनकी चुनौती स्वीकार की। दोनों के बीच जीवन-जगत के प्रश्नोत्तर हुए। शंकराचार्य जीत रहे थे। लेकिन अंतिम प्रश्न भारती ने किया। उनका प्रश्न गृहस्थ जीवन में स्त्री-पुरुष के संबंध के व्यावहारिक ज्ञान से जुड़ा था। शंकराचार्य को उस जीवन का व्यवहारिक पक्ष मालूम नहीं था। उन्होंने ईश्वर और चराचर जगत का अध्ययन किया था। वे अद्वैतवाद को मानते थे। भारती के प्रश्न पर उन्होंने अपनी हार स्वीकार कर ली। अंत में सभा मंडप ने विदुषी भारती को विजयी घोषित किया।


This article "सिंहेश्वर" is from Wikipedia. The list of its authors can be seen in its historical and/or the page Edithistory:सिंहेश्वर.



Read or create/edit this page in another language[सम्पादन]