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सुचिटॉनिक प्यार

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सुचिटॉनिक प्यार, एक प्यार की परिकल्पना है, जिसे सुचित द्वारा प्रतिपादित किया गया है। सुचित ने प्यार पर गहन विचार करना तब शुरू किया जब उन्होंने अपने एक मित्र को प्यार में दुखी पाया। वे काफी आश्चर्यचकित हुए की आखिर प्यार दुख का कारण कैसे हो सकता है। चूंकि उन्होंने कभी इस दुख को खुद से अनुभव नहीं किया था, अतः अपने मित्र के कहने पर वो भी प्यार में होने वाले दुख को अनुभव किया और पाया कि प्यार वास्तव में एक दुख का कारण है।

उन्होंने प्यार, प्यार में होने वाले दुख और इस दुख की निवृति पर काफी गहन चिंतन किया, इस चिंतन के फलस्वरूप, वे प्रेमत्व को प्राप्त हुए, उस प्रेमानंद को प्राप्त हुए जहां प्यार, उसका कारण, और इससे समुदित दुख अपने ही अस्तित्व में विलीन हो जाता हैं।

सुचिटॉनिक प्यार का केंद्रीय सिद्धांत[सम्पादन]

सुचित, प्यार और प्रेम को दो अलग अलग चीज़े मानते हैं। वे कहते हैं प्यार दुख रूप है और प्रेम आनंद रूप। प्यार का कारण है और इसका अंत दुख पर होता है। प्रेम का कोई कारण नहीं, इसका कोई अंत नहीं होता ये शाश्वत है और सत चित्त आनंद स्वरूप है। इसे सिर्फ अपरोक्षानुभूति द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है। अक्सर लोग इन दोनो शब्दो को एकार्थ मानते है तथा व्याकरण की दृष्टि से भी इन दोनो के अर्थ एक जैसे प्रतीत होते हैं। किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से दोनो में काफी अंतर हैं।

सुचित के अनुसार प्यार कार्यकारणवाद है, इसकी उत्पत्ति अपेक्षा रखकर या कारण पर निर्भर रहकर होती है। प्यार सदा कारण सापेक्ष होता है। कारण के होने पर ही प्यार रहता है तथा इससे समुदित दुख भी रहता है तथा कारण के न रहने पर प्यार भी नही रहता है और इससे होने वाला दुख भी नही रहता, और नाही उत्पन्न ही हो सकता है। प्यार दुख है और दुख निरोध प्रेम है।

कारण के होने पर प्यार रहता है या उत्पन्न होता है, जो उत्पन्न होता है, वो प्यार होता है, जो प्यार है वो सापेक्ष है, जो सापेक्ष है वो वस्तुतः न “सत” है न “असत” है केवल प्रतीति है। इसकी कोई वास्तविक सत्ता नही। प्यार इंद्रियों तथा बुद्धिविकल्पो द्वारा अनुभूत है, अतः जो कुछ भी इंद्रियों द्वारा अनुभूत है वो मात्र सापेक्षिक तथा प्रतीतिक है।

सापेक्षिक और प्रतीतिक होने के कारण इसके दोनो अंतो का निषेध हो जाता है। ये “प्यार है” अथवा “प्यार नही है” ये दोनो ही नही है। इसलिए कार्यरूप सापेक्ष प्यार न “सत” है, न “असत” है, न “अस्ति है न “नास्ति” है। न “शाश्वत” है, न “उच्चेद रूप” है। अतः पारमार्थिक दृष्टि से ये ज्ञान कि प्रेम ही सत्य है और प्यार मिथ्या, प्रेम विवेक कहलाता है। अतः प्रेम की परम अवस्था और उसमे समाविष्टि के लिए ये विवेक अत्यंत आवश्यक है।

प्यार चक्र/दुःख चक्र/काम चक्र[सम्पादन]

प्यार कार्य है जो अपने कारण पर निर्भर है और इसका कोई एक कारण नही। इसका पूरा एक कारणकार्य श्रंखला है। प्यार कारण – कार्य श्रंखला का एक हिस्सा है। इस श्रंखला में प्रथम अंग दूसरे अंग का कारण है, और दूसरा अंग तीसरे अंग का। इसी तरह ये श्रंखला आगे बढ़ता रहता है। ये कारणकार्य रूपी प्यार चतुरदश चक्र है जिसे प्यार चक्र, दुख चक्र या काम चक्र कहते हैं। इस श्रंखला के 14 महत्वपूर्ण अंग है –

  1. अविद्या
  2. कर्म संस्कार
  3. अहम
  4. मनोभौतिक शरीर
  5. षडिंद्री
  6. स्पर्श
  7. वेदना
  8. तृष्णा
  9. वासना
  10. काम
  11. स्त्रेच्छा 
  12. प्यार
  13. प्यार व्यवहार
  14. दुख

इस श्रंखला में अविद्या प्रथम है और दुख अंतिम। इस श्रंखला में उत्तर अंग कार्य है और पूर्व अंग कारण है। यदि पूर्व अंग होगा तो उत्तर अंग भी अवश्य होगा। अविद्या इस चक्र का मूल कारण है, इसका कोई कारण नहीं, जब तक अविद्या रहेगी तब तक ये प्यार चक्र यूं ही चलता रहेगा।

अविद्या[सम्पादन]

अविद्या इस काम चक्र का पहला अंग है, ये अनादि है, इसका कोई कारण नहीं है। इसका नाश केवल विद्या से ही संभव है। लौकिक व्यक्तिगत अज्ञान की निवृत्ति लौकिक सविकल्प बौद्धिक ज्ञान द्वारा हो जाती है। यदि मैं पूर्व में अज्ञात किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर लेता हूं, तो इस ज्ञान से मेरी, पूर्व वस्तु की अज्ञानता दूर हो जाती है। किंतु ये अविद्या तो व्यक्तिगत अविद्या नही है। ये तो दुख रूप समस्त ब्रह्माण्ड की जननी है। अतः इसका नाश सविकल्प बौद्धिक ज्ञान से नही हो सकता क्योंकि ये सविकल्प बुद्धि भी स्वयं अविद्या का कार्य है।

सविकल्प बुद्धि स्वयं अविद्या की देन है। इस मूल अविद्या का नाश केवल निर्विकल्प, निरपेक्ष, अपरोक्षानुभूति द्वारा ही संभव है, जिसे आत्मबोध कहते हैं। आत्मबोध के स्थिति में ही व्यक्ति को वास्तविकता से साक्षात्कार होता है। जहां वह अविद्या को तटस्थ होकर देखता है। अविद्या को जान लेना ही अविद्या का नाश है।

किंतु ये बुद्धिविकल्पो द्वारा जानना नही है, क्योंकि ये बुद्धिविकल्प भी अविद्या के कारण ही है। जितने भी कार्य अविद्या के कारण समुदीत होते हैं, उन सभी में अविद्या का प्रभाव विद्यमान होता है। अतः जिसमे स्वयं अविद्या का प्रभाव विद्यमान हो, वो अविद्या को जानने में सहायता कैसे कर सकता है, अतः नही कर सकता।

अविद्या वास्तविकता को देखने नही देता। जब अविद्या शुद्ध निर्विकल्प, निरपेक्ष आत्म तत्व को आवृत्त कर लेती हैं तब वह कलुषित प्रतीत होता है। ये प्रतीति सविकल्प, सापेक्ष, सीमित बुद्धिविकल्प को जन्म देता है। ये सीमित बुद्धिविकल्प विस्मृति को जन्म देता है, जिसके वजह से व्यक्ति स्वयं को भूलने लगता है, जिसके कारण व्यक्ति अपने शुद्ध निर्विकल्प निरपेक्ष, आत्मतत्व को जान नही पाता, और अविद्या के चंगुल में फस जाता है।

अविद्या का कार्य है, व्यक्ति को वास्तविकता से कोसो दूर रखना है। जब भी व्यक्ति स्वयं को जानने की कोशिश करता है, अविद्या प्रभावी हो जाती है और विषयों के प्रति उत्कट राग उत्पन्न कराती है। या यूं कहें, अविद्या के प्रभाव में व्यक्ति स्वयं को जानने में कोई रुचि नहीं लेता, उसे बाह्य विषय ज्यादा आकर्षित करते हैं।

अविद्या का कार्य है, तत्व को उसके वास्तविक रूप में न दिखाकर विकृत रूप में दिखाना। शुद्ध, निरपेक्ष, निर्विकल्प, असीम अद्वैत तत्व को आवृत्त करके बुद्धिविकल्पो के कोटिओ या द्वांदो में सीमित करके सापेक्ष रूप में प्रतीत कराना। अद्वैत को द्वैत में, एक को अनेक में प्रतीत कराना।

कर्म-संस्कार[सम्पादन]

अविद्या ये कार्य कर्म संस्कारो द्वारा करती है। अविद्या से संस्कार उत्पन्न होता है। संस्कार का अर्थ है, कर्म – संस्कार, अर्थात संस्कारो के रूप में संचित कर्म। कर्म संस्कार “अहम” को जन्म देते हैं।

अहम[सम्पादन]

जब शुद्ध आत्मतत्व रूपी सूर्य अविद्या रूपी बादल से पूर्णतः ढक जाता है, तो इससे अहम उत्पन्न होता है। अहम कलुषित आत्मतत्व का परिणाम है। अहम का अर्थ है, सीमित, सापेक्ष, सविकल्प, आत्मतत्व। ये आत्मतत्व की कलुषिता सिर्फ एक प्रतीति है, जो अविद्या और कर्म संस्कार के कारण है, वास्तव में आत्मतत्व कभी भी कलुषित नही होता। जब ये प्रतीति होती है तो, उसे इस संसार के सिवाय कुछ भी नजर नही आता, अतः वो इसी को सत्य मानता है जो बाहर दिखाई दे रहा होता है। वो इंद्रियों से अनुभूत सभी चीजों को सत्य मानता है तथा इस सांसारिक विषयों का भोग करना उसका परम लक्ष्य बन जाता है। इन विषयों का भोग करने के लिए वो शरीर की इच्छा करता है।

मनोभौतिक शरीर[सम्पादन]

वो इन विषयों का भोग अपने शरीर को तृप्त करने के लिए करता है, क्योंकि वो स्वयं को शरीर मानने लग जाता है। स्वयं को शरीर मानने के कारण उसके भीतर अहंकार उत्पन्न होता है। जो मैं मेरा के भाव को जन्म देता है। मनोभौतिक का अर्थ है ” मानसिक भावो और भौतिक पदार्थों के संघात के बना शरीर”। अतः अविद्या – संस्कार निर्मित कारण शरीर से आवृत्त अहम कर्म फल भोगने के लिए (सूक्ष्म या स्थूल) शरीर की इच्छा करता है जिसमे इंद्रिय, मनादि उपकरण लगे हों। अहम से मनोभौतिक संघात उत्पन्न होता है जिसमे अहम प्रविष्ट रहता है। अतः इस प्रकार मनोभौतिक का अर्थ हुआ ” अहम से अनुप्राणित मनोभौतिक शरीर”।

षडिंद्री[सम्पादन]

मनोभौतिक शरीर से षडिंद्री उत्पन्न होते है। ये छः इंद्री है, पांच बाह्य इंद्रियां और छठा मन या अंतःकरण। इन छहों की संज्ञा शडीद्री है। अहम से अनुप्राणित मनोभौतिक शरीर में रुप, रस, गंध, स्पर्श, तथा शब्द को ग्रहण करने वाली क्रमशः चक्षु, जिह्वा, घ्राण, काय, तथा श्रोत्र नामक ये पांच ज्ञानेंद्रियां और मनोभावों को ग्रहण करने वाली छठी इंद्री मन अंतिंद्रिय है। ये मनोभौतिक शरीर में छः इंद्रियां है जो भोग करने के उपकरण या साधन है। ये इंद्रियां बाह्य संसार से जुड़ने के द्वार है।

स्पर्श[सम्पादन]

षडिंद्री से स्पर्श उत्पन्न होता है। स्पर्श का अर्थ है, अहमानुप्राणित इंद्रियों का विषयों से संपर्क। इंद्रियों की ये नैसर्गिक प्रवृति होती है वो विषयों से संपर्क करें। इंद्रियां हर वक्त विषयों से संपर्क करने लिए तत्पर रहती है।

वेदना[सम्पादन]

स्पर्श से वेदना उत्पन्न होता है। वेदना का अर्थ है इंद्रिय- संवेदन या इंद्रियानुभव। वेदना तीन प्रकार की है, सुखरूप, दुखरूप और उदासीन। जब इंद्रियां बाहरी विश्व को स्पर्श करता है तो उससे जो वेदना होती है वो या तो सुखरुप होता है, दुखरुप होता है। लेकिन जब व्यक्ति का बाहरी विश्व से राग समाप्त हो जाता है, तब व्यक्ति विषयों के प्रति उदासीन हो जाता है। उसे फिर न दुख होता है न सुख। उसे फिर न कामनाओं की पूर्ति हर्षित कर पाती है और न कामनाओं की अपूर्ति दुखी ही, वो दोनो में समभाव हो जाता है।

तृष्णा[सम्पादन]

वेदना से तृष्णा उत्पन्न होता है। तृष्णा का अर्थ है इंद्रियसुखोपभोग की तीव्र इच्छा। विषयों को भोगने की उत्कट इच्छा। विषयानंदपान की तीव्र पिपासा।

वासना[सम्पादन]

तृष्णा से वासना उत्पन्न होती है। वासना का अर्थ है इंद्रियों को हर वक्त इंद्रियसुखोपभोग में लगाए रखना या लगाए रखने के लिए कार्य करना। वासना दो प्रकार की मानी गई है। एक शुद्ध वासना और दूसरा विकृत वासना। शुद्ध वासना में व्यक्ति स्वयं के लिए कुछ भी करता, वो हर वक्त दूसरो के कल्याण के लिए कार्य करता है, इसी से उसकी इंद्रियों की तृप्ति होती है। किंतु विकृत वासना सदैव स्वयं के लिए होती है, इसमें व्यक्ति हर वक्त स्वयं के लिए कार्य करता है, इसी से उसकी इंद्रियों की तृप्ति होती हैं।

शुद्ध वासना में व्यक्ति प्रेम के करीब होता है, अतः ये शुद्ध वासना उसे प्रेम की तरफ ले जाता है, जो प्रेम की तरफ जाना चाहते हैं उनके लिए ये प्यार चक्र यहीं पर समाप्त हो जाता है। विकृत वासना से ग्रसित व्यक्ति प्रेम को उपलब्ध नहीं हो सकता। विकृत वासना में व्यक्ति प्यारपूर्ण हो जाता है, अतः ये विकृत वासना व्यक्ति को प्यार से होते हुए अंतिम दुख तक ले जाता है।

काम[सम्पादन]

विकृत वासना से काम का जन्म होता है। काम का अर्थ है, जननेंद्रीसंवेदनजन्यसुख की तीव्र इच्छा। ऐसे इच्छा रखने वाले व्यक्तियों को कामी या कामातुर कहा जाता है, और व्यक्तियों में काम की इच्छा को कामेच्छा या कामलिप्सा कहा जाता है। सभी इंद्रिय सुखों में जननेंद्री का सुख सर्वोत्तम है। विकृत वासना से ग्रस्त सभी जीवों के लिए कामेच्छा सर्वोपरि है।

स्त्रेच्छा[सम्पादन]

काम से ग्रस्त व्यक्तियों में स्त्रेच्छा उत्पन्न होती है। स्त्रेच्छा का अर्थ है, स्त्री की इच्छा या स्त्री के प्रति अनुराग। कामी व्यक्ति अपने कामेच्छा को तृप्त करने के लिए स्त्री की इच्छा करता है, ताकि जननेद्रियो को सुख पहुंचाने के लिए संभोग कर सकें।

प्यार[सम्पादन]

स्त्रेच्छा से प्यार उत्पन्न होता है। उत्पन्न होता है ये कहना सही नही है, वल्कि संभोग की अपेक्षा रखकर उसे उत्पन्न किया जाता है। प्यार एक भ्रम है, जो कामी व्यक्तियों द्वारा उत्पन्न किया गया है ताकि वो स्त्री को प्राप्त कर अपनी कामेच्छा पूरी कर सकें या पुरुष को प्राप्त कर स्त्री अपनी कामेच्छा पूरी कर सके। प्यार एक पुल की तरह है, जिसका निर्माण व्यक्ति खुद करता है, और उस पर खुद ही चल कर स्त्री के शरीर को प्राप्त करता है या प्राप्त करने की कोशिश करता है ताकि वो अपने जननेद्रियों को शांत कर सकें। प्यार नामक भ्रम की रचना संभोग करने के लिए किया गया है, चाहे इसकी रचना स्त्री करे या पुरुष, प्यार दोनों पर सामान रूप से लागू होता है। प्यार संभोग को वैध बनाता है, बिना प्यार का संभोग अवैध समझा जाता है। संभोग की इच्छा को मन में रखकर प्यार की रचना की जाती है।

प्यार व्यवहार[सम्पादन]

प्यार, प्यार व्यवहार को जन्म देता हैं। प्यार व्यवहार का अर्थ है, ऐसा व्यवहार जिससे स्त्री को प्रसन्न किया जा सकें। प्यार व्यवहार में ये विश्वास दिलाया जाता है कि वो व्यक्ति उस स्त्री से प्यार करता है। स्त्री को प्यार रूपी भ्रम में फंसाने के लिए व्यक्ति, स्त्री के सभी जरूरतों का ख्याल रखता है, उसके पसंद ना पसंद का ख्याल रखता है। स्त्री को हर वक्त खुश रखना, उसे घूमना फिराना, वस्तुएं उपहार में देना, बड़ी बड़ी वादाएं करना, परवाह करने का दिखावा करना, कामुक वार्ता करना, इत्यादि प्यार व्यवहार में शामिल है।

दु:ख[सम्पादन]

प्यार व्यवहार से दुख उत्पन्न होता है। जब व्यक्ति को प्यार व्यवहार में इतना मेहनत करने के बावजूद भी सफलता नहीं मिलती तब उसे दुख की प्राप्ति होती है। स्त्री के प्रति असमंजस की स्थिति व्यक्ति को हर पल दुख देता है। प्यार व्यवहार में किया गया सभी संभव कृत्य व्यक्ति को हर पल सुख/दुख का अनुभव कराती रहती है। प्यार व्यवहार में असफलता व्यक्ति को घोर दुख और अवसाद में डाल देती है। कुछ मामलों में ये दुख असहनीय होकर क्रोध का रूप ले लेती है, और हत्या या आत्महत्या जैसे परिणामों को जन्म देती हैं। अतः प्यार सभी दुखो में एक दुख का कारण है।

ये चक्र तब तक चलता रहेगा, जब तक व्यक्ति अविद्या से ग्रसित है। चाहे स्त्री हो या पुरुष, ये प्यार चक्र दोनों पर सामान रूप से लागू होता है, क्यूंकि दोनों ही अविद्या से ग्रसित हैं।

प्रेम तथा प्यार का दार्शनिक विवेचन[सम्पादन]

प्रेम का पारमार्थिक स्वरूप[सम्पादन]

प्रेम प्यार नही है। प्रेम में प्यार नही होता है। प्यार किया जाता है, प्रेम होता है। जो किया जाता है, उसका कोई कारण होता है, और जिसका कोई कारण है, वो सापेक्ष होता है। और जो सापेक्ष है वो न सत है और न असत, सिर्फ मिथ्या ही है, मिथ्या के प्रति अनुराग दुख का हेतु है। प्रेम होता है, जो होता है, वो सदैव होता है उसके होने का कोई कारण नही होता। प्रेम अनादि है। प्रेम का कोई कारण नही, अतः इसका कोई अंत नहीं। प्रेम अविद्या का नाश है। जहां अविद्या है वहां प्रेम नही, वहां प्यार है। अविद्या की स्थिति में ही प्यार उत्पन्न होता है। प्रेमपूर्ण होना सार्वभौमिक प्रेम है। जहां प्यार है वहां प्रेम नही बस प्रेम की संभावना है, और जहां प्रेम हैं वहां प्यार नही वहां प्यार की कोई संभावना नहीं।

दुख निरोध प्रेम है। प्रेम में दुख नही रहता। अविद्या का नाश ही दुख निरोध है। अविद्या के नाश से व्यक्ति परम प्रेमपूर्ण हो जाता है। अपरोक्षानुभुति से अविद्या का नाश होता है। अपरोक्षानुभुति से व्यक्ति प्रेमत्व को प्राप्त होता है। प्रेम में द्वैत का अत्यंतिक नाश हो जाता है। प्रेम में व्यक्ति को दो नही दिखता सिर्फ एक ही दिखता है। प्रेम में व्यक्ति सभी में स्वयं को देखता है। हर वस्तु में, हर जीव में वो स्वयं को देखता है, स्वयं के अस्तित्व को ही देखता है। प्रेम सभी में एक को देखना है। प्रेम आत्मबोध है, आत्मबोध में व्यक्ति प्रेम हो जाता है।

प्रेम का व्यवहारिक स्वरूप[सम्पादन]

प्रेम शुद्ध वासना के निकट है। प्रेम में व्यक्ति स्वयं के लिए कुछ भी नही करता। उसका सारा कर्म समाज कल्याण के लिए होता है। जो समाज के लिए कल्याणकारी है वो सभी के लिए कल्याणकारी है। इसलिए प्रेमपूर्ण व्यक्ति का प्रेम कल्याणकारी है। प्रेम परम स्वतंत्रता है। प्रेम में कोई बंधन नहीं। बंधन दो के बीच होता है, किंतु प्रेम में तो सिर्फ एक ही बचता है।

प्रेमपूर्ण व्यक्ति सभी में स्वयं को देखता है, और स्वयं में सभी को। प्रेम अद्वैत है। प्रेम में कोई चाह नही होती। प्रेम, प्रेम के बदले प्रेम नही मांगता। प्रेम ये नही कहता कि मैंने तुमसे प्रेम किया अब तुम भी मुझे प्रेम करो। प्रेम किया नही जाता। प्रेम कहा नही जाता। प्रेम को कहा नही जा सकता। कह दिया कि प्रेम नही रहा। प्रेम स्त्री को मुक्त करता है, और मुक्त स्त्री ही प्रेम कर सकती है। जितना ज्यादा स्वतंत्रता उतना ज्यादा प्रेम। प्रेम परम स्वतंत्रता है। प्रेम खुद भी स्वंतत्र है और दूसरे को भी स्वतंत्र करता है।

प्रेम मांग से मुक्त है। प्रेम चाह से मुक्त है। प्रेम स्त्रेच्छा से मुक्त है। प्रेम काम से मुक्त है। प्रेम कामना से मुक्त है। प्रेम कामुकता से मुक्त है। व्यक्ति में काम है प्रेम में नही। प्रेम में संभोग की कोई इच्छा नहीं, क्योंकि प्रेम परमानंद है। क्योंकि प्रेम में जो आनंद है वो संभोग में नही। प्रेम सत् चित् आनंद स्वरूप है। प्रेम में आनंद मिलता है, संभोग में सुख। संभोग का सूख क्षणिक है, प्रेम का आनंद शाश्वत है।

प्रेम में संभोग अवचेतन रूप से घटता है। सचेतन से घटा तो प्यार है। संभोग की इच्छा न होते हुए भी संभोग स्वतः घटता है या घट सकता है। दो प्रेमी के प्रेम से यदि संभोग निकलता है तो वो संभोग समाधि की और ले जाता है। प्रेमी का संभोग एक दूसरे की आराधना है। प्रेमी का संभोग एक दूसरे के प्रति श्रद्धा है। प्रेमी का संभोग स्वयं की झलक है। प्रेमी का संभोग स्वयं का साक्षात्कार है। प्रेमी का संभोग एक का अनुभव है।

प्रेम में कोई विवशता नही। प्रेम में कोई आसक्ति नही। प्रेम अनासक्त है। आसक्ति के लिए दो चाहिए किंतु प्रेम की स्थिति मे तो कण कण में वो स्वयं है। प्रेम जीवन मुक्ति है। प्रेम में कोई कामना नही। प्रेम संसार की इच्छा से मुक्त है। प्रेम स्वयं की इच्छा से भी मुक्त है। प्रेम में कोई मोह नहीं। प्रेम में कोई अहंकार नही। प्रेम में कोई त्याग और ग्रहण नही। प्रेम शुद्ध प्रतीक्षा है। प्रेम में कोई वियोग नही। प्रेम में कोई वियोग दुख नही। प्रेम में कोई नाराजगी नही। प्रेम में कोई दुख नही। प्रेम में कोई उम्मीद नहीं। प्रेम क्षमा है, प्रेम क्षमा करने वाला है। प्रेम ठहरा जल नही, प्रेम तालाब नही। प्रेम बहता जल है, प्रेम बहता नदी है, प्रेम विस्तृत सागर है। प्रेम एक का आलिंगन नही, प्रेम सबका आलिंगन है।

प्यार का व्यवहारिक स्वरूप[सम्पादन]

प्यार का कोई पारमार्थिक स्वरूप नही। प्यार अविद्या की देन है। प्यार दुख का कारण है। प्यार दुख पर खत्म होता है किंतु प्यार खत्म नही होता। जब तक अविद्या है तब तक प्यार है। मृत्यु होने पर भी अविद्या और कर्म संस्कार रहते हैं, तथा नए जीवन का कारण बनते हैं और व्यक्ति को पुनः इस प्यार चक्र में फसाते हैं। प्यार सब कुछ स्वयं के लिए करता है।

प्यार में दूसरो के लिए किया गया सब कुछ भी स्वयं के लिए होता है। प्यार बंधन है। ये लोगो को बंधन में बांधता है। उन्हे मुक्त नही करता। प्यार गुलामी है। प्यार करने वाले एक दूसरे का गुलाम हो जाते हैं। प्यार में विचार भी गुलाम हो जाते हैं। प्यार में पैर भी गुलाम हो जाते हैं। पैर भी खुद की इच्छा से नही चल सकते। जो भी स्त्री प्यार में पड़ती है वो धीरे धीरे अपनी स्वतंत्रता खोने लगती है, और एक बंधन महसूस करने लगती है। प्यार में परिश्रम है, क्योंकि प्यार में चाह है, कामनाएं है, और जहां कामनाएं है वहां दुख है, असफलता है, निराशा है, अशांति है। प्यार कहता है, मैने तुम्हे प्यार किया अब तुम भी मुझे प्यार करो। तुमने किसी और से प्यार क्यों किया तुम सिर्फ मुझसे प्यार करो। मैने तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया तुमने मेरे लिए क्या किया। प्यार हिसाब रखता है क्या किया और क्या नही किया।

प्यार बिना कारण के नही होता। प्यार के पीछे हमेशा कारण होता है। कारण कैसा भी हो लेकिन हमेशा एक कारण होता है। प्यार प्रतिष्ठा देखता है, प्यार हैसियत देखता है, प्यार बराबरी देखता है। प्यार बराबरी वाले से किया जाता है। प्यार कभी गरीब अमीर में नही होता। लेकिन प्रेम किसी से भी हो सकता है, प्रेम कुछ भी नही देखता, वो संसार की इच्छा से मुक्त होता है। प्रेम होता है, प्यार किया जाता है। प्यार शरीर से किया जाता है, प्रेम शरीर से मुक्त है। प्यार अपने खर्चों का हिसाब रखता रखता है। प्यार उम्मीदों और कामनाओं पर टिका रहता है। प्यार स्त्री को घुमाता है, फिराता है, नचाता है, बहलाता है, फुसलाता है। प्यार बड़ी बड़ी बातें करता है। प्यार भूत, वर्तमान और भविष्य की बातें करता है। प्यार समय का गुलाम है। प्यार में क्रोध है, नाराजगी है, लड़ाई है, झगड़ा है, क्लेश है। प्यार में कोई प्रतीक्षा नही, प्यार सब कुछ जल्दी चाहता है। प्यार भोग है, विलास है।

विकृत वासना, काम का कारण है, काम, स्त्रेच्छा का कारण है, और स्त्रेच्छा, प्यार का कारण है, प्यार, प्यार व्यवहार का कारण है, और प्यार व्यवहार दुख का कारण है। तुम्हे दुख हुआ क्योंकि तुमने प्यार व्यवहार किया। तुमने प्यार व्यवहार किया क्योंकि तुमने प्यार किया है। तुमने प्यार किया क्योंकि तुमने स्त्री की इच्छा की। तुमने स्त्री की इच्छा की क्योंकि तुम्हारे भीतर कामेच्छा है। तुम्हारे भीतर कामेच्छा है, क्योंकि तुम विकृत वासना के शिकार हो। तुम विकृत वासना के शिकार हो, क्योंकि तुम्हारे पास तृष्णा है। तुम्हारे पास तृष्णा है क्योंकि तुम्हारे पास वेदना है, इससे तुम्हे इंद्रियसंवेदनजन्य सुख मिलता है। तुम्हे इंद्रियसंवेदनजन्य सुख मिलता है क्योंकि इंद्रियों का बाहरी विश्व के साथ संपर्क होता है। ये संपर्क क्यों होता है, क्योंकि तुम्हारे पास छः इंद्रियां है। इनकी नैसर्गिक प्रवृति विषयों से संपर्क करने की होती है। तुम्हारे पास छः इंद्रियां है, क्योंकि तुम्हारे पास अहमानुप्राणित मनोभौतिक संघात रूपी शरीर है। ये संघात क्यों होता है, क्योंकि ये अहम से अनुप्राणित है। तुम्हारे पास अहम अर्थात् कलुषित आत्मतत्व है। हमारे पास अहम क्यों है, क्योंकि तुम्हारे पास पूर्व कर्मों के संस्कार है। ये अहम को अनुप्राणित होने के लिए बाध्य करते हैं। ये कर्म संस्कार क्यों है, क्योंकि तुम्हारे पास अविद्या है। इस अविद्या का कोई कारण नही। ये अविद्या ही व्यक्ति को कर्मों में प्रवृत्त करता है। ये अविद्या ही काम चक्र रूपी दुख का मूल कारण है। अविद्या का नाश ही प्रेम हो जाना है। प्रेम हो जाना ही आत्मानुभूति है।

प्यार भ्रम है, मृगतृष्णा है। प्यार प्रतीति है। प्यार द्वैत है। प्यार की सिर्फ प्रतीति है, ये होता नही, ये सिर्फ एक छलावा है। जिस प्रकार मृगतृष्णा के जल की सिर्फ प्रतीति होती है, ये वास्तव में नही होता उसी प्रकार ये प्यार भी वास्तव में नही होता, ये सिर्फ दिखता है, होता नही। प्यार पैदा किया जाता है, और समय आने पर इसे नष्ट भी कर दिया जाता है। आज का प्यार कल नफरत भी बन सकता है। लेकिन प्रेम के साथ ऐसा नहीं होता, जो प्रेम कल था, वोही आज है, और कल भी वोही होगा। प्रेम का कोई नकारात्मक रूप नही। प्यार का नकारात्मक रूप नफरत है, द्वेष है, ईर्ष्या है, किंतु प्रेम का कोई भी नकारात्मक रूप नही। प्रेम नित्य है, पवित्र है इसमें कोई दोष नही। यदि कोई दोष है, तो वो प्रेम नही प्यार है।

प्यार चारे के समान है। जिस प्रकार मछली को फसाने के लिए चारा डाला जाता है, उसी प्रकार स्त्री को फसाने के लिए प्यार रूपी चारे का प्रयोग किया जाता है, ताकि संभोग किया जा सकें। स्त्री प्रेम की प्यासी है। स्त्री प्रेम की मूरत है, वो निःस्वार्थ प्रेम चाहती है। एक स्त्री के लिए प्रेम ही सब कुछ है। स्त्री नादान है, वो प्यार को प्रेम समझ लेती है, यही उसकी मूर्खता है। प्रेम विवेक होना अत्यंत आवश्यक है।

प्यार मांग से युक्त है। प्यार चाह से युक्त है। प्यार स्त्रेच्छा से युक्त है। प्यार काम से युक्त है। प्यार कामना से युक्त है। प्यार कामुकता से युक्त है। प्यार, प्यार व्यवहार से युक्त है। प्यार दुख से युक्त है। प्यार संशय से युक्त है। प्यार भय से युक्त है। प्यार धोखे ये युक्त है। प्यार नफरत से युक्त है। प्यार क्रोध से युक्त है। प्यार बंधन से युक्त है। प्यार कामेच्छा से युक्त है। प्यार क्षणिक उत्पत्तिविनाश से युक्त है। प्यार उच्छेदरूप है।

प्यार में संभोग की इच्छा है। संभोग में प्यार की इच्छा नही। प्यार में संभोग सचेतन रूप से घटता है। दोनो जानते है संभोग घट रहा है। जननेंद्रिसुख एक व्यसन है। प्यार में संभोग सिर्फ कामेच्छा पूर्ति है। प्यार में संभोग सिर्फ क्षणिक सुख देने वाला है। व्यक्ति क्षणिक सुख का गुलाम है। प्यार में व्यक्ति संभोग का गुलाम है। जननेंद्रिसुख एक व्यसन है।

प्यार में विवशता है। प्यार में आसक्ति है। प्यार में लगाव है। प्यार में मोह बंधन है। प्यार जीवन बंधन है। प्यार संसार की इच्छा से युक्त है। प्यार अहंकार से युक्त है। प्यार त्याग और ग्रहण से युक्त है। प्यार में जल्दीवाजी है। प्यार में वियोग है। प्यार में वियोग दुख है। प्यार में नाराजगी है। प्यार में उम्मीद है। प्यार में पल पल दुख है। प्यार एक का आलिंगन है, प्यार सबका आलिंगन नही।


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