हरी घास पर क्षण भर
आधुनिक हिन्दी काव्य में प्रयोगवाद का प्रारंभ सन् 1943 ई. में अब द्वारा संपादित 'तार सप्तक' से माना जाता है। इस पत्रिका से जुड़े सभी कवि न संवेदना, नए भावबोध नए शिल्प के प्रयोगकर्ता थे ये मूलतः प्रयोग करने में विश्वास करते थे। भाषा की दृष्टि से प्रयोग, उपमानों की दृष्टि से प्रयोग, शिल्प की दृष्टि से नए प्रयोग, एवं विषयवस्तु की दृष्टि से नए प्रयोग। इन कवियों ने इस मात्रा में प्रयोग किया कि विद्वानों ने इस प्रवृत्ति को प्रयोगबाद नाम से अभिहित कर दिया। अज्ञेय ने 'तार सप्तक' की भूमिका में प्रयोगकर्ता पर ज्ञात में भी अज्ञात खोजने पर एवं नये नये विषयों और काव्य और शैलियों के अन्वेषण पर ऐसा बल दिया कि व्यंग्य रूप में अलोचकों ने इस नयी प्रवृत्ति को 'प्रयोगवाद' नाम प्रदान किया। इन कवियों के संबंध में अज्ञेय जी का कथन है-
"ये किसी एक स्कूल के नहीं है, किसी मंजिल पर पहुंचे हुए नहीं है, अभी राही है राह नहीं राहों के अन्वेषी' हैं। अज्ञेय जी का यह कथन उन कवियों की निजी विशेषताओं को रेखांकित करता है।"
प्रयोगवादी कवियों की दृष्टि पूर्ण यथार्थवादी थी, वह छायावादी कवियों की तरह भावुक नहीं थी। भावुकता को कवि का बीजमंत्र इस काल में नहीं माना गया। इस समय के कवियों ने हृदय के स्थान पर मन को तवज्जो दी भावना को अपेक्षा 'बुद्धि को प्रमुखता प्रदान की है। प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह के शब्दों में कहें तो "जिस प्रकार छायावाद के आरम्भिक दिनों में कैशोर भावुकता एक प्रकार की अलंकृति थी और उसे कवि-कर्म का बीजमंत्र माना जाता था, उसी तरह प्रयोगवाद के आरंभ काल में भावुकता मूर्खता का पर्याय हो गयी। कवि अपने परिवेश के विषय में इतना सतर्क हो गया कि हर जगह वह बौद्धिकता और रक्षात्मक कवच के साथ आने का अभ्यस्त हो चला।
"हरी घास पर क्षण की अनुभूति लिखते समय कवि बौद्धिक ढंग से अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करता है। छायावादी कवियों की तरह यह भावनाओं के आवेश में नहीं बहता-
"आओ बैठो
क्षण भर तुम्हें निहारूं
झिझक न हो कि निरखना
दबी वासना की विकृति है।
चलो, उठे अब
अब तक हम ये बन्धु सैर को आये-
और रहे बैठे तो लोग कहेंगे
धुंधले में दुबके दो प्रेमी बैठे हैं
वह हम हो भी
तो यह हरी घास ही जाने ?"
यह बौद्धिकता आरोपित होकर समाज और परिवेशगत दबाव और बंधनों का परिणाम है। अपने समाज और आस-पास के परिवेश के प्रति कितना सजग है यह हमें उपयुक्त पंक्तियों के माध्यम से पता चलता है।
'वेदना' प्रयोगवादी काव्य का एक अनुपेक्षी संदर्भ है। प्रयोगवादियों ने दुःखानुभूति को जीवन दर्शन के रूप में ग्रहण किया है। वे दुःख को व्यक्तित्व के विषय और मन के परिष्कार का माध्यम मानते हैं। इन कवियों को दुखानुभूति की पावन शक्ति में अटूट विश्वास और आस्था है। 'हरी घास पर क्षण भर की निम्न पंक्तियों में ये दुख स्पष्ट लक्षित हुआ है-
"दुख सबको मांजता है और
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना यह न जाने
किन्तु जिनको मांजता है उनको यह सीख देता है
कि सबको मुक्त रखे"
( हरी घास पर क्षण भर)
इन पंक्तियों में कवि वेदना प्रकट करते हुए कहते हैं कि दुःख व्यक्ति को अनुभवी और दृढ़ बनाता है,उसे तपाकर सोना बनाता है, किंतु खुद कुछ नही पाता, अपनी स्थिति में ही रहता है।
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