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हिन्दी काव्य में प्रकृति चित्रण

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संस्कृत साहित्य ही क्या, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में प्रकृति चित्रण की विशेष परम्परा रही है और हिन्दी साहित्य (विशेषतः हिन्दी काव्य) भी प्रकृति चित्रण से भरा पड़ा है। यह अकारण नहीं है। प्रकृति और मानव का सम्बन्ध उतना ही पुराना है जितना कि सृष्टि के उद्भव और विकास का इतिहास। प्रकृति की गोद में ही प्रथम मानव शिशु ने आँखे खोली थी, उसी के गोद में खेलकर बड़ा हुआ है। इसीलिए मानव और प्रकृति के इस अटूट सम्बन्ध की अभिव्यक्ति धर्म, दर्शन, साहित्य और कला में चिरकाल से होती रही है। साहित्य मानव जीवन का प्रतिबिम्ब है, अतः उस प्रतिबिम्ब में उसकी सहचरी प्रकृति का प्रतिविम्बित होना स्वाभाविक है।

काव्य में प्रकृति का वर्णन कई प्रकार से किया जाता है जैसे - आलंबन, उद्दीपन, उपमान, पृष्ठभूमि, प्रतीक, अलंकार, उपदेश, दूती, बिम्ब-प्रतिबिम्ब, मानवीकरण, रहस्य तथा मानव-भावनाओं का आरोप आदि। केशव ने अपनी कविप्रिया[१] में वर्ण विषयों का उल्लेख निम्न प्रकार किया है :

देस, नगर, बन, बाग, गिरि, आश्रम, सरिता, ताल।
रवि, ससि, सागर, भूमि के भूषन, रितु सब काल॥ ~~केशव[२]

भारतीय काव्य में प्रकृति चित्रण[सम्पादन]

विश्व के प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य --ऋग्वेद से ही हमें प्रकृति चित्रण की सुदृढ़ परम्परा प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ में उषा ,सूर्य ,मरुत ,इंद्र आदि को अलौकिक शक्तियों के रूप में स्वीकार करते हुए ,उनके मानवी -क्रिया- कलापों के का चित्रण किया गया है।

  • उषा की कल्पना एक कुमारी बाला के रूप में करते हुए सूर्य को उसका प्रेमी बताया गया है।
  • पुरुरवा को छोड़कर जाती हुई कांतिमती उर्वशी के सौंदर्य को भी मेघों को चीरकर जाती हुई बिजली के सदृश बताया गया है।
  • मंडूक सूक्त में वर्षा के आगमन और मेढकों पर उसके आल्हादकारी प्रभाव का बहुत ही सुंदर वर्णन किया गया है। --"जल की बूंदों से प्रसन्न होकर क्रीड़ा - मग्न मेंढक एक -दूसरे को बधाई -सी देते प्रतीत होते हैं। (ऋग्वेद ७/१०३/४ )
वाल्मीकि
  • आदि कवि -वाल्मीकि[३] ~~ प्रकृति के रोमांचकारी प्रभाव से पूर्णतः परिचित थे। मानवीय भावनाओं के उद्दीपन के लिए उसने स्थान - स्थान पर प्रकृति का आश्रय ग्रहण किया है। बालकाण्ड में कौशिक ऋषि के संयम को भंग करने की योजना बनाता हुआ इन्द्र रम्भा से कहता है :
मा भैवी रम्भे भद्रं ते कुरुध्व मम शासनम।
कोकिल हृदयग्राही माधवे रुचिर द्रुमे।
अहं कंदर्प सहितः स्थास्यामि तव पार्श्वतः।
त्वं हि रुपं बहुगुणं कृत्वा परमं भास्वरम
तमृषिं कौशिकं भद्रे भेदस्व तपस्विनम।।~~वाल्मीकि
  • अपभ्रंश के परवर्ती युग में अब्दुर्रहमान एवं बब्बर जैसे कवियों ने उद्दीपन के रूप में प्रकृति के कई चित्र उपस्थित किये हैं। महाकवि बब्बर का एक चित्रण द्रष्टव्य है जिसमें पति -वियुक्ता नायिका ग्रीष्म के दाह से क्षुब्ध होकर किसी के शीतल- स्पर्श की कामना व्यक्त करती है~~
तरुण -तरणि तवई धरणि,पवण बहइ खरा।
लग्ग णहिं जल बड़ मरुथल ,जल- जिअण -हरा।
दिसइ चलइ हिअअ दुलइ हम ,इकलि बहू।
घर णहिं अपि सुणहि पहिआ ! मन इछइ कछु।।~~बब्बर

आदि काल(वीर गाथा काल ) में प्रकृति -चित्रण[सम्पादन]

हिन्दी के प्रारम्भिक काव्य में प्रकृति का चित्रण प्रायः उद्दीपन और उपमान रूप में हुआ है. रासो ग्रंथों के रचयिताओं ने जहाँ सौंदर्य -निरूपण के लिए प्रकृति के उपमान ग्रहण किये हैं .वहाँ संयोग -वियोग की अनुभूतियों के उद्दीपन के रूप में विभिन्न ऋतुओं का वर्णन किया है। "बीसलदेव रासो " की नायिका की विरहाग्नि भादों मास की वर्षा की झड़ियों से और भी उद्दीप्त हो उठती है~~

भादबऊ बरसई छइ मगहर ग़ंभीऱ। जल -थल महीयल सहू भर्या नीर।।
जाणें सरवर उलटई। एक अंधारी बीजखी बाया।।
सूनी सेज विदेश पिआ। दोई दुख नाल्ह क्युं सइहणा जाई।।~~चंद बरदाई

भला ,एक दुःख हो तो सहन किया जा सकता है,किन्तु प्रकृति के मादक वैभव ने तो विरहिणी बाला के शोक - संताप को द्विगुणित कर दिया है। मैथिल -कोकिल विद्यापति ने तो प्रकृति के सौन्दर्य को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है। नारी के रूप - वैभव को प्रकृति के अंगराग से सुसज्जित करने की कला में जैसी दक्षता विद्यापति को प्राप्त है ,वैसी सम्भवतः किसी अन्य कवि को प्राप्त नहीं है। वे विभिन्न प्रकृति को विभिन्न अलंकारों के रूप में में प्रस्तुत करते है।

पीन पयोधर दूबरि गता ,मेरु उपजल कनक -लता।
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सुंदर वदन चारु अरु लोचन ,काजर रंजति भेला।
कनक -कमल माझ काल भुजंगिनी ,श्री युत खंजन खेला।।~~विद्यापति

इसी प्रकार प्रकृति -प्रयोग के अन्य उदाहरण ~

  • उद्दीपन रूप में ~~
फुटल कुसुम नव कुंज कुटीर बन ,कोकिल पंचम गावे ऱे।
मलयानिल हिम सिखर सिधारल ,पिया निज देश न आवे रे।~~विद्यापति
  • अन्योक्ति के रूप में~~
कंटक मांझ कुसुम परगास ,भ्रमर विकल नहीं पावए पास।~~विद्यापति

भक्तिकाल में प्रकृति चित्रण[सम्पादन]

  • महाकवि मलिक मोहम्मद जायसी ने अपनी अमर कृति पद्मावत में प्रकृति वर्णन को पूर्ण प्रश्रय दिया है। उदहारण स्वरुप आगे देखें :
पिउ सौ कहेउ सँदेसडा, हे भौरा ! हे काग।
सो धनि बिरहै जरि मुई , तेहि क धुवाँ हम्ह लाग।।
रकत ढुरा माँसू गरा ,हाड भयउ सब संख।.
धनि सारस होइ ररि मुई ,पीउ समेटहिं पंख।।~~जायसी

रीति काल में प्रकृति चित्रण[सम्पादन]

केशव दास
  • केशव एक मात्र ऐसे कवि हैं ,जिनकी गणना भक्ति काल और रीति काल दोनों में की जाती है फिर केशव रीति काल के अधिक दिखाई पड़ते हैं। केशव ने अपने काव्य में प्रकृति के सम्पूर्ण उपादानों का उल्लेख किया है। उदाहरण द्रष्टव्य है:
अरुन गात अतिप्रात पद्मिनी-प्राननाथ मय।
मानहु "केसवदास' कोकनद कोक प्रेममय।
परिपूरन सिंदूर पूर कैघौं मंगलघट।
किघौं सुक्र को छत्र मढ्यो मानिकमयूख-पट।
कै श्रोनित कलित कपाल यह, किल कापालिक काल को।
यह ललित लाल कैघौं लसत दिग्भामिनि के भाल को।।[२]
केसव' सरिता सकल मिलित सागर मन मोहैं।
ललित लता लपटात तरुन तर तरबर सोहैं।
रुचि चपला मिलि मेघ चपल चमकल चहुं ओरन।
मनभावन कहं भेंटि भूमि कूजत मिस मोरन।
इहि रीति रमन रमनी सकल, लागे रमन रमावन।
प्रिय गमन करन की को कहै, गमन सुनिय नहिं सावन।~~केशव
कविवर बिहारी राधा -कृष्णा की प्रार्थना करते हुए
  • रीतिकाल का प्रमुख विषय श्रृंगार-चित्रण होने के कारण इस युग में प्रकृति -चित्रण को और भी अधिक प्रश्रय मिलना स्वाभाविक है। उदहारण द्रष्टव्य है ~~
लपटी पहुप पराग -पट ,सनी स्वेद मकरद।
आवति नारि नवोढ लौं,सुखद वायु मकरद।।
सघन कुंज छाया सुखद ,सीतल मंद समीर।
मन ह्वै जात अजौं ह्वै ,वा जमुना के तीर।।----बिहारी
  • सेनापति द्वारा प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण के वर्णन का एक उदाहरण द्रष्टव्य है:
बृष कौं तरनि ,तेज सहसौ किरन करि , ज्वालन जाल बिकराल बरसत है।
तचति धरनि जग जरत झरनि सीरी ,छाँह कौं पकरि पंथी -पंछी बिरमत है।

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मेरे जान पौनों सीरी को पकरि कौनों ,घरी एक बैठि कहूँ घामै बितवत है।~~सेनापति
  • देव का हृदयग्राही प्रकृति वर्णन :
डार -द्रुम पलना,बिछौना नवपल्लव के, सुमन झंगूला सोहै तन छवि भारी दै।
पवन झुलावै ,केकी कीर बहरावै , 'देव ',कोकिल हलावै ,हुलसावै करतारी दै।
पूरित पराग सौं उतारौ करै राई -लोन ,कंजकली -नायिका लतानि सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसन्त ,ताहि ,प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै।। ~~देव (कवि)
  • कवि पद्माकर के काव्य में प्रकृति वर्णन की एक झलक :
कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में ,क्यारिन में कलित कलीन किलकंत है।

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बीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में ,बनन में ,बागन में बगरयो बसन्त है।~~पद्माकर

आधुनिक काल में प्रकृति चित्रण[सम्पादन]

आधुनिक युगीन हिन्दी काव्य में प्रकृति की छटा का चित्रण पर्याप्त सूक्ष्मता ,सरसता एवं विशदता से हुआ है। विशेषतः छायावादी काव्य तो प्रकृति के वैभव से इतना अधिक रंजीत है कि कुछ विद्वानों ने प्रकृति -वर्णन के विशेष प्रकार को ही छायावाद समझ लिया है। जैसे ~

  • स्वतंत्र रूप में ~~
उषा सुनहले तीर बरसती ,जय लक्ष्मी सी उदित हुई।
उधर पराजित काल रात्रि भी ,जल में अंतर्निहित हुई। ~~जयशंकर प्रसाद
  • मानवीकरण ~~
पगली ,हाँ सम्हाल ले तेरा ,छूट पड़ा कैसे अंचल।
देख बिखरती मणिराजी ,आरी उठा ओ वेसुध अंचल।।~~जयशंकर प्रसाद

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सिंधु सेज पर धरा बधू अब ,तनिक संकुचित बैठी सी।
प्रलय निशा की हलचल स्मृति में ,मान किए सी ऐंठी सी।।~~जयशंकर प्रसाद

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नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग
किला ही ज्यों बिजली का फूल मेघ वन बीच गुलाबी रंग~~जयशंकर प्रसाद[४]
दिवसावसान का समय ,
मेघमय आसमान से उतररही है ,
वह संध्या -सुंदरी परी सी
धीरे धीरे धीरे।
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर -मधुर हैं दोनों उसके अधर,~
किन्तु ज़रा गंभीर ,~ नहीं है उनमें हास -विलास।
हँसता है तो तारा एक
गुंथा हुआ उन घुंघराले काले काले बालों से
हृदयराज्य की रानी का वः करता है अभिषेक। ~~सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत[५][६] की निम्न पंक्तियाँ मनोहारिणी हैं~~

रोमांचित सी लगती वसुधा, आई जौ, गेहूं में बाली।
अरहर सनई की सोने की , किन्किनियाॅं है शोभाशाली।
उडती भीनी तैलाक्त गंध , फूली सरसों पीली-पीली।
लो हरित धरा से झांक रही , नीलम की कलि तीसी नीली।। ~~ सुमित्रानंदन पंत[७]
अचल हिमगिरि के ह्रदय में आज चाहे कम्प हो ले ,
या प्रलय के आंसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले,
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया ,
जाग या विद्युत् -शिखाओं में निठुर तूफ़ान बोले।~~महादेवी वर्मा
  • आधुनिकोत्तर काल में प्रकृति चित्रण देखिये एक उदहारण :
चाह नहीं मैं सुरबाला के ,गहनों में गूंथा जाऊं।
चाह नहीं प्रेमी माला में ,बिंध प्यारी को ललचाऊँ।

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मातृ भूमि पर शीश चढ़ाने ,जिस पथ जावें वीर अनेक।।~~माखनलाल चतुर्वेदी [८]

सन्दर्भ[सम्पादन]

इन्हें ही पढ़ें[सम्पादन]

बाहरी कड़ियाँ[सम्पादन]


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