विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963
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विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 कतिपय प्रकारों के विनिर्दिष्ट अनुतोष से संबंधित विधि को परिभाषित और संशोधित करने के लिए अधिनियम भारत गणराज्य के चौदहवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो: -
भाग 1 - प्रारंभिक[सम्पादन]
धारा - १ - संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ (1) यह अधिनियम विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 कहा जा सकेगा ।
(2) इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है ।
(3) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जिसे केन्द्रीय सरकार, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे ।
धारा - २ - परिभाषाएं इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, -
(क) बाध्यता" के अंतर्गत विधि द्वारा प्रवर्तनीय हर एक कर्तव्य आता है;
(ख) व्यवस्थापन" से [भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (1925 का 39) द्वारा यथापरिभाषित बिल अथवा क्रोड़पत्र से भिन्न] ऐसी लिखत अभिप्रेत है जिसके द्वारा जंगम या स्थावर सम्पत्ति में के क्रमवर्ती हितों के गन्तव्य अथवा न्यागमन को व्ययनित किया जाता है या उसका व्ययनित किया जाना कारित होता है;
(ग) न्यास" का वही अर्थ है जो भारतीय न्यास अधिनियम, 1882 (1882 का 2) की धारा 3 में है और उस अधिनियम के अध्याय 9 के अर्थ के भीतर आने वाली न्यास प्रकृति की बाध्यता इसके अन्तर्गत आती है;
(घ) न्यासी" के अन्तर्गत हर ऐसा व्यक्ति आता है जो सम्पत्ति को न्यासतः धारण किए हुए है;
(ङ) ऐसे अन्य सब शब्दों और पदों के, जो एतस्मिन् प्रयुक्त हैं किन्तु परिभाषित नहीं हैं, और भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) में परिभाषित हैं, वे ही अर्थ होंगे जो उस अधिनियम में उन्हें क्रमशः समनुदिष्ट किये हैं ।
धारा - ३ - व्यावृतियाँ एतस्मिन् अन्यथा उपबन्धित के सिवाय, इस अधिनियम की किसी भी बात से यह नहीं समझा जाएगा कि वह-
(क) किसी व्यक्ति को विनिर्दिष्ट पालन से भिन्न अनुतोष के किसी ऐसे अधिकार से, जो वह किसी संविदा के अधीन रखता हो, वंचित करती है; अथवा
(ख) दस्तावेजों पर भारतीय रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 का 16) के प्रवर्तन पर प्रभाव डालती है ।
धारा - ४ - विनिर्दिष्ट अनुतोष का व्यक्तिगत सिविल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए ही अनुदत्त किया जाना, दण्ड विधियों के प्रवर्तन के लिए नहीं विनिर्दिष्ट अनुतोष, व्यक्तिगत सिविल अधिकारों के प्रवर्तन के प्रयोजन के लिए ही अनुदत्त किया जा सकता है, न कि किसी दण्ड विधि के प्रवर्तन के प्रयोजन मात्र के लिए ।
भाग 2 - विनिर्दिष्ट अनुतोष[सम्पादन]
अध्याय 1 - सम्पत्ति के कब्जे का प्रत्युद्धरण धारा - ५ - विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति का प्रत्युद्धरण जो व्यक्ति, किसी विनिर्दिष्ट स्थावर सम्पत्ति के कब्जे का हकदार है, वह सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) द्वारा उपबन्धित प्रकार से उसका प्रत्युद्धरण कर सकेगा ।
धारा - ६ - स्थावर सम्पत्ति से बेकब्जा किए गए व्यक्ति द्वारा वाद (1) यदि कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति के बिना स्थावर सम्पत्ति से विधि के सम्यक् अनुक्रम से अन्यथा बेकब्जा कर दिया जाए, तो वह अथवा उससे व्युत्पन्न अधिकार द्वारा दावा करने वाला कोई भी व्यक्ति, किसी अन्य ऐसे हक के होते हुए भी जो ऐसे वाद में खड़ा किया जा सके, उसका कब्जा वाद द्वारा प्रत्युद्धत कर सकेगा ।
(2) इस धारा के अधीन कोई भी वाद-
(क) बेकब्जा किए जाने की तारीख से छह मास के अवसान के पश्चात् ; अथवा
(ख) सरकार के विरुद्ध,
नहीं लाया जाएगा ।
(3) इस धारा के अधीन संस्थित किसी भी वाद में पारित किसी भी आदेश या डिक्री से न तो कोई अपील होगी, और न ऐसे किसी आदेश या डिक्री का कोई पुनर्विलोकन ही अनुज्ञात होगा ।
(4) इस धारा की कोई भी बात किसी भी व्यक्ति को ऐसी सम्पत्ति पर अपना हक स्थापित करने के लिए वाद लाने से और उसके कब्जे का प्रत्युद्धरण करने से वर्जित नहीं करेगी ।
धारा - ७ - विनिर्दिष्ट जंगम सम्पत्ति का प्रत्युद्धरण जो व्यक्ति किसी विनिर्दिष्ट जंगम सम्पत्ति के कब्जे का हकदार हो, वह सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) द्वारा उपबन्धित प्रकार से उसका प्रत्युद्धरण कर सकेगा ।
स्पष्टीकरण 1-न्यासी ऐसी जंगम सम्पत्ति के कब्जे के लिए इस धारा के अधीन वाद ला सकेगा, जिसमें के फायदाप्रद हित का वह व्यक्ति हकदार हो जिसके लिए वह न्यासी है ।
स्पष्टीकरण 2-जंगम सम्पत्ति पर वर्तमान कब्जे का कोई विशेष या अस्थायी अधिकार इस धारा के अधीन वाद के समर्थन के लिए पर्याप्त है ।
धारा - ८ - जिस व्यक्ति का कब्जा है किन्तु स्वामी के नाते नहीं है, उसका उन व्यक्तियों को, जो अव्यवहित कब्जे के हकदार हैं, परिदत्त करने का दायित्व कोई भी व्यक्ति जिसका जंगम सम्पत्ति की किसी भी विशिष्ट वस्तु पर कब्जा अथवा नियंत्रण है जिसका वह स्वामी नहीं है, वह उसके अव्यवहित कब्जे के हकदार व्यक्ति को निम्नलिखित दशाओं में से किसी में भी उसका विनिर्दिष्टतः परिदान करने के लिए विवश किया जा सकेगा-
(क) जबकि दावाकृत वस्तु प्रतिवादी द्वारा वादी के अभिकर्ता अथवा न्यासी के रूप में धारित हो;
(ख) जबकि दावाकृत वस्तु की हानि के लिए धन के रूप में प्रतिकर वादी को यथायोग्य अनुतोष न पहुंचाता हो;
(ग) जबकि उसी हानि से कारित वास्तविक नुकसान का अभिनिश्चय करना अत्यन्त कठिन हो;
(घ) जबकि दावाकृत वस्तु का कब्जा वादी के पास से सदोषतः अन्तरित कराया गया हो ।
स्पष्टीकरण-जब तक और जहां तक कि तत्प्रतिकूल साबित न कर दिया जाए, इस धारा के खंड (ख) या खंड (ग) के अधीन दावाकृत जंगम सम्पत्ति की किसी वस्तु के बारे में न्यायालय, यथास्थिति, यह उपधारित करेगा कि-
(क) दावाकृत वस्तु की हानि के लिए धन के रूप में प्रतिकर वादी को यथायोग्य अनुतोष न पहुंचाएगा ;
(ख) उसकी हानि द्वारा कारित वास्तविक नुकसान का अभिनिश्चय करना अत्यन्त कठिन होगा ।
इन्हें भी देखें[सम्पादन]
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