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सिद्धमंगल स्तोत्र

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श्री सिद्धमंगल स्तोत्र एक संस्कृत भाषा का स्तोत्र है. हिन्दू सनातन धर्म में भगवान की पूजा, अर्चना, स्तुति के लिए विविध स्तोत्रों का पठन किया जाता है.[१]

सिद्धमंगल स्तोत्र भगवान दत्तात्रेय का प्रथम अवतार श्रीपाद वल्लभ की स्तुति में गाया जाता है. इस स्तोत्र की रचना श्रीपाद श्रीवल्लभ के नाना बापनाचार्युलू ने की है.[२]

श्रीपाद वल्लभ[सम्पादन]

श्रीपाद वल्लभ या श्रीपाद श्रीवल्लभ को भगवान श्री दत्तात्रेय का प्रथम अवतार माना जाता है. इनका जन्म भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य के पूर्व गोदावरी ज़िले में पिठापुरम नामक छोटेसे कसबे में हुआ.[३][४] जब श्रीपाद महाराज छोटे से थे और अपने नानाजी बापनाचार्युलू के साथ खेल रहे थे, तब नानाजी ने उन के छोटे छोटे चरणों को सहलाया और प्यार से चूमा. उस समय बापनाचार्युलू को छोटे श्रीपद ने दत्तरूप ने अपना दर्शन दिया. इसके बाद बापनाचार्युलू को सिद्धमंगल स्तोत्र की अनुभूति हुई और उन्होंने इसे लिख दिया.[२][३] सिद्धमंगल स्तोत्र का उल्लेख श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रमृतम नामक ग्रंथ के सत्रहवें अध्याय के अंत में आता है.

स्तोत्र[सम्पादन]

श्री मदनंत श्रीविभुषीत अप्पल लक्ष्मी नरसिंह राजा ।

जय विजयीभव, दिग्विजयीभव, श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥१॥

अनुवाद- सर्वव्यापी भगवान दत्तरूप विष्णुजी का माता लक्ष्मी एवम सर्व शक्ति सहित अप्पललक्षी नरसिंहराज शर्मा के घर श्रीपाद रूप में जन्म हुआ. ऐसे श्रीगुरु श्रीपादराज की जयजयकार हो. उनकी दिग्विजयी कीर्ति त्रिखंडों में (सारे ब्रह्माण्ड में) घूमें.

श्री विद्याधारी राधा सुरेखा श्री राखीधर श्रीपादा ।

जय विजयीभव, दिग्विजयीभव, श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥२॥

अनुवाद- श्रीपाद की तीन बहने विद्याधारी, राधा एवम सुरेखा का अहोभाग्य है के वे श्रीपाद के हाथों में राखी बांध कर उनकी शरण में है. ऐसे श्रीगुरु श्रीपादराज की जयजयकार हो. उनकी दिग्विजयी कीर्ति त्रिखंडों में (सारे ब्रह्माण्ड में) घूमें.

माता सुमती वात्सल्यामृत परिपोषित जय श्रीपादा ।

जय विजयीभव, दिग्विजयीभव, श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥३॥

अनुवाद- श्रीपाद का जन्म और पालनपोषण माता सुमति (उपनाम-महारानी) के अमृतरूपी वात्सल्य से हुआ. ऐसे श्रीगुरु श्रीपादराज की जयजयकार हो. उनकी दिग्विजयी कीर्ति त्रिखंडों में (सारे ब्रह्माण्ड में) घूमें.

सत्यऋषीश्र्वरदुहितानंदन बापनाचार्यनुत श्रीचरणा ।

जय विजयीभव, दिग्विजयीभव, श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥४॥

अनुवाद- सत्यऋषि रूपी कन्या (अर्थात सुमति महारानी) के घर जन्मे श्रीपाद के नाना के रूप में स्वयं बापानाचार्यलू का भाग्य वर्णन क्या करे. ऐसे श्रीगुरु श्रीपादराज की जयजयकार हो. उनकी दिग्विजयी कीर्ति त्रिखंडों में (सारे ब्रह्माण्ड में) घूमें.

सवितृ काठकचयन पुण्यफल भारद्वाजऋषी गोत्र संभवा ।

जय विजयीभव, दिग्विजयीभव, श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥५॥

अनुवाद- श्रीपाद जिस पिठापुर में जन्मे वहा दो हजार साल पहले सवितृ काठक नामक महायज्ञ का प्रयोजन भारद्वाजऋषी ने किया था. उस यज्ञ के पवित्र प्रसाद रूप में श्रीपाद का अवतरण हुआ, क्या कहें. ऐसे श्रीगुरु श्रीपादराज की जयजयकार हो. उनकी दिग्विजयी कीर्ति त्रिखंडों में (सारे ब्रह्माण्ड में) घूमें.

दौ चौपाती देव लक्ष्मीगण संख्या बोधित श्रीचरणा ।

जय विजयीभव, दिग्विजयीभव, श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥६॥

अनुवाद- श्रीपाद जब भिक्षुकी करते थे तब 'दो चौपाती देव लक्ष्मी' की आवाज दे के भिक्षा मांगते थे. असल में वो दो चपाती नही मांगते थे. इस गूढ़ वाक्य में दो (२) चौ (४) पती (८) लक्ष्मी (९) से २४८९ इस कूट संख्या का उल्लेख मिलता है. यह कूट संख्या सर्वसिद्धिमय गायत्री देवी का आवाहन होता है. ऐसे श्रीगुरु श्रीपादराज की जयजयकार हो. उनकी दिग्विजयी कीर्ति त्रिखंडों में (सारे ब्रह्माण्ड में) घूमें.

पुण्यरुपिणी राजमांबासुत गर्भपुण्यफलसंजाता ।

जय विजयीभव, दिग्विजयीभव, श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥७॥

अनुवाद-श्रीपाद की नानी राजमांबा के पुण्य की गिनती क्या करें, जिनके नाते स्वयं श्रीपाद है. राजमांबा ने सुमति महारानी को जन्म दे के अपने मातृत्व से बड़ा पुण्य कमाया है. ऐसे श्रीगुरु श्रीपादराज की जयजयकार हो. उनकी दिग्विजयी कीर्ति त्रिखंडों में (सारे ब्रह्माण्ड में) घूमें.

सुमतीनंदन नरहरीनंदन दत्तदेव प्रभू श्रीपादा ।

जय विजयीभव, दिग्विजयीभव, श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥८॥

अनुवाद- सुमति महारानी, अप्पललक्षी नरसिंहराज शर्मा के घर दत्तदेव खुद श्रीपाद के रूप में जन्मे. और इस तरह स्वयं बापानाचार्यलू और सामान्य मनुष्यजन का बड़ा भाग्य है. ऐसे श्रीगुरु श्रीपादराज की जयजयकार हो. उनकी दिग्विजयी कीर्ति त्रिखंडों में (सारे ब्रह्माण्ड में) घूमें.

पीठिकापुर नित्यविहारा मधुमतीदत्ता मंगलरुपा ।

जय विजयीभव, दिग्विजयीभव, श्रीमदखंड श्री विजयीभव ॥९॥

अनुवाद- दत्तमहाराज की एक गूढशक्ति मधुमती की सहायता से श्रीपाद स्वयं अपने जन्म से पहले से समाधि के बाद भी गुप्त रूप से नित्य विचरण करते हैं. ऐसे श्रीगुरु श्रीपादराज की जयजयकार हो. उनकी दिग्विजयी कीर्ति त्रिखंडों में (सारे ब्रह्माण्ड में) घूमें.

॥ श्रीपादराजम् शरणम् प्रपद्ये ॥

इन्हें भी देखें[सम्पादन]

संदर्भ[सम्पादन]


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