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हिन्दी-काव्य में विरह की अभिव्यक्ति

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हिन्दी-काव्य में विरह की अभिव्यक्ति साहित्य का सर्वोत्कृष्ट रस शृंगार है और इस शृंगार का भी परिष्कृत रूप विरह-वर्णन में मिलता है। शृंगार के संयोग पक्ष में तो बाह्य चेष्टाओं और काम क्रीड़ाओं की ही अधिकता होती है, हृदय की सूक्ष्म भाव वृत्तियों का प्रकाशन और काम से मुक्त प्रेम के शुद्ध रूप का प्रकटीकरण वियोग ही होता है।

वियोग के रूप[सम्पादन]

सामान्यतः वियोग के चार रूप एवं दस काम-दशाएँ स्वीकार की जाती हैं। चार रूप ये हैं --

  1. प्रथमानुराग
  2. मान
  3. प्रवास
  4. करुण।

आधुनिक दृष्टिकोण से इन चार रूपों का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है --

  • प्रथमानुराग: नायक और नायिका के प्रारम्भिक प्रेम को प्रथमानुराग कहते हैं। इस स्थिति में नायक और नायिका एक दूसरे से मिल नहीं पाते, अतः उनके विरह में प्रेम की इस नवीन अनुभूति का उल्लास एवं मिलन-सुख की मधुर कल्पनाएँ ही अधिक होती हैं। इसमें विरह-वेदना की वह गम्भीरता नहीं होती, जो कि अन्य कोटि के विरह में पाई जाती है।
  • नायिका के रुष्ट हो जाने पर दोनों के मिलन-सुख में जो अन्तर आ जाता है उसी को मान-विरह कहा गया है। व्यापक दृष्टि से कहा जा सकता है कि जब नायक या नायिका में से कोई एक रुष्ट होकर या अप्रसन्नता के कारण थोड़े समय के लिए विमुख हो जाता है, तो दूसरे को जिस वेदना की अनुभूति होती है, वही मान-जन्य विरह है।
  • नायक या नायिका के दूर चले जाने पर जिस विरह की अनुभूति होती है उसे प्रवास की कोटि में रखा गया है।
  • नायक या नायिका में से किसी की मृत्यु हो जाने के कारण जिस शोक की अनुभूति होती है, उसे करुण की संज्ञा दी गई है।

पूर्ववर्ती भारतीय साहित्य में विरह-वर्णन[सम्पादन]

पुरुरवा द्वारा उर्वशी से प्रणय निवेदन

भारत की नहीं विश्व की प्राचीनतम उपलब्ध रचना ऋग्वेद है। इसके दसवें मंडल में ९५वीं सूक्ति में उर्वशी और पुरुरवा का संवाद वर्णित है जो कि विरह-वेदना की उक्तियों से भरपूर है। राजा पुरुरवा की प्रेयसी उर्वशी किसी बात पर रुष्ट होकर उसे छोड़ कर चली जाती है। पुरुरवा उसके विरह में पागलों की तरह उन्मत्त होकर उसे ढूँढता हुआ मानसरोवर के तट पर पहुँचता है, जहां उर्वशी अपनी सखियों के साथ आमोद-प्रमोद में व्यस्त मिलती है। "हे निष्ठुर! ठहर! ठहर!" इन शब्दों से अपनी बात आरम्भ करता हुआ पुरुरवा अपने विरह-व्यथित हृदय की दशा का अत्यंत करुणोत्पादक वर्णन करता है --

हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृष्णवावहै नु।
न नौ मंत्रा अनुदितास एते मयस्करंपरतरे चनाहन।।[१]

अर्थात

"हे निष्ठुर! ठहर! ठहर! आ, हम अपनी परस्पर दृढ़ सम्बन्ध बनाये रखने की प्रतिज्ञा पूरी करें, अन्यथा हमारा जीवन सुखी नहीं रहेगा।"

जब उर्वशी पर पुरुरवा के इन शब्दों का कोई असर नहीं हुआ, तो वह विरह-वेदनापूर्ण हृदय की अवस्था का चित्रण करता हुआ कहता है --

"तेरे विरह में मेरा मन युद्ध में भी नहीं लगता। मैं अब इतना असमर्थ हूँ कि विजय-प्राप्ति के लिए शत्रुओं पर बाण भी नहीं चला सकता। अब शत्रुओं से भूमि, धन आदि छीनकर उनका उपयोग भी नहीं कर पाता। मेरे उस सिंहनाद को जिसे सुनकर शत्रु काँप जाते थे, अब कोई नहीं सुनता।"

पुरुरवा के इन शब्दों का भी निष्ठुर,अल्हड, मद-विभोर सुंदरी उर्वशी पर कोई असर नहीं पड़ता। वह गर्व और ओत-प्रोत शब्दों में उत्तर देती हुई कहती है --

"पुरुरवा, क्या रखा है तुम्हारी बातों में? जिस प्रकार सूर्य सदा उषा के पीछे-पीछे दौड़ता रहता है, उसी प्रकार तुम भी सदा मेरे पीछे पड़े रहते हो, पर मैं वायु के समान हूँ,मुझे कौन वश में कर सकता है?"

अंत में पुरुरवा हताश होकर कहता है --

सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां गन्त्वा उ।

+ + + +

अर्थात

"हे उर्वशी! तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रह सकूंगा। मैं किसी दूर देश में जाकर अपने शरीर को आवरण हीन करके हिंसक पशुओं के आगे लेट जाऊंगा। बलवान भेड़िये मेरे शरीर को चीरकर टुकड़े-टुकड़े कर देंगे। "

आश्चर्य है कि प्रेमी की मृत्यु के इस करुण दृश्य की कल्पना से भी उस सुंदरी का हृदय नहीं पसीजता। वस्तुतः यह प्रणय-संवाद मान-जन्य विरह का सुन्दर उदाहरण है। इसमें पुरुरवा की विरह-वेदना की अभिव्यक्ति अत्यंत प्रभावशाली शब्दों में हुई है।

आगे चलकर रामायण और महाभारत के प्रासंगिक प्रेमाख्यान में विरह की व्यंजना अत्यंत उत्कृष्ट शैली में हुई है। विशेषतः महाभारत के राजा संवरण एवं कुमारी तप्ता के प्रणयाख्यान और नल-दमयंती-आख्यान में विरह के चारों रूपों ~~ पूर्वानुराग, संयोग, वियोग एवं चित्रण प्रभावोत्पादक शब्दों में मिलता है। आदि से लेकर अन्त तक यह आख्यान कामुकता की पंकिल भूमि से असंयुक्त रहता है,उसमे शारीरिक चंचलता के खिन भी दर्शन नहीं होते कालिदास के कुमारसम्भव में पूर्वानुराग का चित्रण सुंदर रूप में हुआ है। उनका मेघदूत तो वियोगी हृदय का ही सन्देश है। यक्ष के संदेश में प्रणय -वेदना के स्थान पर सम्भोग -आकांक्षा के दर्शन होते हैं अतः इसमें कामुकता का मिश्रण भी दिखाई पड़ता है। संस्कृत के गद्य काव्य ~~ वासवदत्ता ,दशकुमारचरित ,कादम्बरी आदि में प्रेम और विरह का भव्य स्वरूप उपलब्ध होता है। इसमें सर्वोत्कृष्ट कादम्बरी है। इसमें दो प्रेम कथानकों को गूंथकर एक साथ उपस्थित गया है। पहले की नायिका है ~~ महाश्वेता और दूसरे की कादम्बरी। दोनों के नायक क्रमशः पुण्डरीक और चन्द्रापीड हैं, जो पूर्वानुराग की असह्य वेदना से छटपटाकर प्राण त्याग देते हैं ,किन्तु दोनों नायिकाएं अपने अपूर्व और तपस्या के बल पर उनके पुनर्जन्म की प्रतीक्षा करती हुई अन्त में उन्हें प्राप्त कर लेती हैं।

प्राकृत एवं अपभ्रंश काव्य में विरह वर्णन[सम्पादन]

प्राकृत की गाथा सप्तशती और बज्जालग्ग में विरह -वर्णन अनेक गाथाओं में हुआ है। विरहणी की दुर्दशा का निरूपण करते हुए गाथा सप्तशतीकार ने लिखा है ~~ क्षण में ताप ,क्षण में पसीना ,क्षण में ठिठुरन ,क्षण में रोमांच !हाय यह प्रिय -विरह सन्निपात रोग की तरह दुसह्य है। हे पथिक ,इस तालाब का पानी मत पियो ,इसमें प्रोषित भर्तृका बधू ने स्नान किया है,उसकी विरहाग्नि से इसका पानी तप गया है। अपभ्रंस के मुक्तक काव्यों में भी विरहनुभति की व्यंजना अत्यंत मार्मिक रूपसे हुई है। विशेषतः संदेश रासक तो विशुद्ध विरह -सम्बन्धी काव्य हैं। इसमें नायिका किसी पथिक के हाथ अपने प्रवासी प्रिय को सन्देश भेजती है कि ~~

कहउ पहिय ! कि ण कहउ कहिसु किं कहिय -यण।
जिण किय एह अवत्थ णेहरइ -रहिय -यण।।

+ + +

जिणि हउ बिरहह कुहरि एव करि घल्लिया।
अत्थलोहि अकयत्थि इकल्लिय मिल्हिया। ।

हे पथिक! क्या कहूँ और क्या न कहूँ ---भला ! जिस स्नेहहीन ने मेरी यह दशा कर दी उसे क्या कहा जाय !+++ उस अर्थलोभी ,अकृतार्थ ने इस विरह -कुहरे में मुझ अकेली को छोड़ दिया है।आगे चलकर अपनी दुखपूर्ण स्थिति का वर्णन करती हुई वह विरहणी कहती है:

जई अंबरु उग्गिलइ रे पुणि रंगियइ , अह निन्नेहउ अंगु ,होइ आभंगियइ।
अह हारिज्जइ दविणु, जिणिवि पुणु भिट्ठियइ ,पिय विरतु हई चित्त पहिया !किम वट्टियइ।।

अर्थात यदि वस्त्र अपना रंग छोड़ दे तो पुनः रँगा जा सकता है। यदि शरीर चिकनाई रहित हो जाय तो उसे पुनः चिकना किया जा सकता है। यदि धन हर जाय तो उसे पुनः जीतकर प्राप्त किया जा सकता है। पर हे पथिक !जब प्रिय का चित्त विरक्त हो जाय तो उसे पुनः किस प्रकार लौटाया जाय।[१]

विद्यापति का विरह वर्णन[सम्पादन]

विद्यापति

हिंदी के प्रारम्भिक कवियों में महाकवि विद्यापतिअपने सौंदर्य -प्रेम एवं विरह के गीतों के लिए बहुत प्रसिद्द हैं।[२] उनके काव्य में पूर्वानुराग एवं विरह की विभिन्न अनुभूतियों का चित्रण अत्यंत मार्मिक रूप में हुआ है। प्रेमकी प्रारम्भिक अवस्था में नायकराज की क्या दशा हो गई है ,द्रष्टव्य है:

पथ गति पेखल मो राधा !
तखनुक भाव परान पये पीड़लि ,रहल कुमुद निधि साधा !!

अर्थात मैंने राधा को राह के मध्य में देखा। उसी क्षण मेरे प्राण ही घायल हो गए। उसी समय से उस कुमुद -निधि की साध बनी हुयी है। राधा के प्रेम में कृष्ण की विह्वलता का चित्रण देखिये~~

आसायें मन्दिर निसि गमाबए ,सूख न सूत संयान !
जखन जतए जाहि निहारिये ,ताहि ताहि तोहि बहन !!

नायक की भाँति नायिका की विरह -व्यथा की व्यंजना भी विद्यापति ने की है। उनकी विरहणियों को अवस्था के अनुसार दो श्रेणियों में बाँट सकते हैं:

  1. नववयस्क तरुणियाँ
  2. प्रौढ़ाएँ।

प्रथम श्रेणी की वियोगिनियों में वासना -पूर्ति की लिप्सा अध्क है तथा उनमें प्रणय -जन्य वेदना का आभाव है देखिये:

कत दिन पिय मोर पूछब बात। कबहुँ पयोधर देइब हाथ।।
कत दिन लेइ बैठाइब कोर। कत दिन मनोरथ पूरब मोर।।

इसी प्रकार एक अन्य युवती को प्रियतम के प्रवास का उतना अधिक दुःख नहीं जितना उसे अपने यौवन के व्यर्थ बीत जाने का है:

अंकुर तपन ताप जदि जारब , कि करब वारिद मेहे।
यह नव जीवन विरह गमाओब ,कि करब से पिया गेहे।।

अर्थात जब सूर्य के ताप से अंकुर जल जायगा तो फिर मेघ की वर्षा से क्या लाभ होगा। यदि इन नवयौवन को विरह में खो दिया तो फिर उस प्रिय के घर आने पर क्या होगा ? किन्तु दूसरी श्रेणी की प्रौढ़ा नायिकाएं ऐसा नहीं सोचतीं। उनमें यौवन की चंचलता एवं वासना के वेग के स्थान पर प्रणय की गंभीरता मिलती है। अतः वे पति के स्थूल मिलन की अपेक्षा ,उनके स्नेह की अधिक इक्षुक हैं:

सब कर एहु परदेश बसि सजनी ,आयल सुमिरि सिनेहू।
हमर एहन पति निरदय सजनि ,नहिँ मन बाढ़ए नेह।।

यहाँ नायिका के पति के न आने का उतना खेद नहीं है ,जितना कि उसके प्रेम-शून्य हो जाने का है। आगे चलकर यही नायिका अपनी विरह -वेदना की अपेक्षा प्रिय के मंगल को अधिक महत्व देती है:

माधव हमरो रहल दुर देश ,केओ न कहे सखि कुशल सनेस।
जुग -जुग जिवथु वसथु लख कोस ,हमर अभाग , हनक नहिं दोस।।[३]

वस्तुतः यहाँ भावना का ऐसा उत्कर्ष दिखाई पड़ता है जिनसे नायिका के अहं ,स्वार्थ एवं काम का सर्वथा विगलन हो जाता है तथा उसका प्रणय विशुद्ध प्रेम के रूप में परिवर्तित हो जाता है।

कबीर की विरहानुभूतियाँ[सम्पादन]

कबीर की आत्मा, परमात्मा के मिलन के लिए उत्सुक हो जाती है तो उसकी व्ही अवस्था हो जाती है ,जो लौकिक क्षेत्र में प्रेमी की पूर्वानुराग में होती है यथा :

कब देखूँ मेरे राम स्नेही ,जा बिनु दुःख पावे मेरी देही।
हूँ तेरा पंथ निहारूँ स्वामी, कबरे मिलहुगे अन्तरजामी।।

आत्मा की यह मिलन आकांक्षा धीरे -धीरे बढ़ती हुई तीव्र वेदना का रूप धारण कर लेती है। वह अपने ह्रदय के वेग पर संयम रखने में असमर्थ हो जाती है और अपने प्रिय को पुकार -पुकार कर बुलाने लगती है ~~

बाल्हा आव हमारे गेह रे ,तुम बिनु दुखिया देह रे।

+ + +

एकमेक ह्वै सेज न सोवै, तब लग कैसा नेह रे।
अन्न न भावै ,नींद न आवै ,ग्रिह वन धरे न धीर रे।
बाल्हा आव हमारे गेह रे -------।

कबीर की विरह -व्यंजना में विभिन्न संचारी भावों का चित्रण भी अत्यंत स्वाभाविक रूप में हो गया है।कुछ उदहारण द्रष्टव्य हैं:

बिरहिन ऊभी पंथ सिर ,पंथी बूझै धाय। एक सबद कह पीव का ,कबरे मिलेंगे आइ।।
आइ सकौं न तुज्झ पैं ,सकूँ न तुज्झ बुलाय। जियरा योंही लेहुगे ,विरह तपाइ -तपाइ।।
कै विरहिणी कु मीच दे ,कै आपा दिखलाइ। आठ पहर का दाझणा मो पै सह्या न जाइ।।

कबीर जैसा अक्खड़ भी विरह -वेदना से पीड़ित होकर दैन्य से ओत -प्रोत हो जाता है। वह जन -जन के सामने हाथ फ़ैलाने लगता है:

है कोई ऐसा पर उपकारी ,सूं कहे सुनाय रे। ऐसे हाल कबीर भये हैं ,बिन देखे जि जाय रे।।

वे दूसरों की स्थिति सेअपनी तुलना करते हुए कहते हैं:

सुखिया सब संसार ,खाय अरू सोवै , दुखिया दास कबीर है ,जगे अरु रोवै।।[४]

जायसी का विरह -वर्णन[सम्पादन]

जायसी ने तो अपने काव्य में विरहानुभूतियों की व्यंजना एक ऐसी उत्कृष्ट अत्युक्तिपूर्ण काव्य शैली में की है कि उससे विद्वानों को अलौलिकता का भ्रम हो गया। पूर्वानुराग और वियोग का चित्रण जायसी ने पुरे विस्तार से किया है। उन्होंने विरहानुभतियों की व्यंजना के लिए मुख्यतः दो पात्रो को माध्यम बनाया है। पहला रत्नसेन और दूसरा नागमती।[५] रत्नसेन के पूर्वानुराग की दशा का चित्रण :

फूल फूल फिरि पूछों ,जो पहुँचौ आहि केत।
तन निछावर के मिलों ,ज्यों मधुकर जिउ देत।

और फिर इसका विकास :

तजा राज राजा भा जोगी।और किंगरी कर गहेउ वियोगी।।
तन विसंभर मन बाउर रटा। अरुझा प्रेम परी सिर जटा।।

रत्नसेन की विरह -दशा का निरूपण करते हुए कवि ने विभिन्न अनुभावों और संचार भावों का आयोजन भी सम्यक रूप से किया गया है:

ठाँवहि सोवहि सब चेला। राजा जागै आपु अकेला।।
जेहि के हिये प्रेम रंग का तेहि भूंख नींद बिसरामा।।

दूसरी ओर नागमती की विरह -व्यंजना भी कवि ने अत्यंत मार्मिक शब्दों में की है। कुछ पंक्तियाँ आगे दृष्टव्य हैं:

पिऊ सौ कहेउ संदेसडा , हे भौंरा ! हे काग !।
सो धनि विरह जरि मुई ,तेहिक धुआँ हम्ह लाग।।

जायसी के विरह -वर्णन की सबसे बड़ी विशेषतः यह है कि उन्होंने नायक और नायिका दोनों में विरह का विकास समुचित रूप से दिखाया है, जिससे उसमें प्रेम की गम्भीरता दृष्टिगोचर होती है।

सूर का विरह -वर्णन[सम्पादन]

सूर ने कृष्ण और गोपियों के गोपियों के माध्यम से विरहानुभूतियों की की व्यंजना अत्यन्त सरस रूप में की है। वियोग की आशंका -मात्र से प्रेम - विवश गोप -बाला राधा के ह्रदय की क्या दशा हो जाती है ,इसका चित्रण देखिये:

सुने हैं श्याम मधुपुरी जात।
सकुचति कह न सकत काहू सौं ,गुप्त ह्रदय की बात।
शंकित बचन अनागत कोऊ ,कहि जु गई अधरात।

+ + +

सूर श्याम संग तै बिछुरत हैं ,कब ऐहैं कुशलात।।

और जब विदाई की घड़ियाँ उपस्थित होतीं हैं ,तो प्रेमिका का ह्रदय सौ -सौ धाराओं में बह निकलता है:

हौं साँवरे के संग जैहौं।
होनी होइ सु होई उभै लै यश ,अपयश काहू न डरैहों।
कहा रिसाइ करैगो कोऊ ,जो रोकिहै प्राण ताहि दैहों।।

जब प्रियतम बिदा हो जाते हैं ,तो वियोगिनी बाला के ह्रदय में क्षोभ ,पश्चाताप एवं निराशा की करुण झाँकी अवशिष्ट रह जाती है:

हरि बिछुरत फाट्यो न हियो।
भयो कठोर बज्र ते भारी ,रहि कैं पापी कहा कियो।
घोरि हलाहल सुन री सजनी ,औसर तेहि न पियो।
मन सुधि गई संभारित पूरी दाँव अक्रूर दियो।
कुछ न सुहाइ गई सुधि तब ते ,भवन काज को नेम लियो।
निशि दिन रटत सूर के प्रभु बिनु ,मरिबो तऊ न जात जियो।।

मीरा का विरह -वर्णन[सम्पादन]

प्रेम - दीवानी मीरा ने अपने ह्रदय के उद्गारों को मर्मस्पर्शी शब्दों में व्यक्त किया है अपने " गिरधर गोपाल "के विरह में भावाभिभूत होकर उन्होंने शत -शत गीतों की रचना की है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य :

हेरि मैं तो दरद दिवाणी होइ ,दरद न जाणैं मेरो कोइ।
घायल की गति घायल जाणै ,को जिण लाई होइ।
जोहरि की गति जौहरी जाणै ,की जिन जौहर होइ।।
सूली ऊपर सेज हमारी ,सोवणा किस बिध होइ।
गगन मंडल पै सेज पिया की ,किस बिध मिलणा होइ।

+ + +

रमैया बिन नींद न आवै।
नींद न आवै विरह सतावै ,प्रेम की आंच डुलावै।

+ + +

कहा करूँ कित जाऊँ मोरी सजनी , वेदन कुंर्ण बुतावै।
बिरह नागण मोरी काया डसी है ,लहर -लहर जिवयावै।

+ + +

मीराँ कहै बीती सोइ जानै ,मरण जीवण उन हाथ।

मीरा की इन पंक्तियों में विरह -वेदना की ऐसी गंभीरता मिलती है ,जो बरबस ही पाठक के ह्रदय को भावोद्वेलित करने में समर्थ है। लौकिक प्रेम की वासना के अभाव में उनका वेदना स्वरुप और भी अधिक दिव्य और पवित्र हो गया है।

महादेवी वर्मा का विरह -वर्णन[सम्पादन]

कवियत्री महादेवी तो वेदना की साक्षात् मूर्ति ही हैं। उनके काव्य की प्रत्येक पंक्ति विरहानुभूतियों से उद्वेलित है।[६][७] विरह की मधुर पीड़ा का संचार उनके जीवन में किस प्रकार हुआ ,इसका स्पष्टीकरण भी उनहोंने किया है ~~

इन ललचाई पलकों पर ,पहरा था जब व्रीड़ा का।
साम्राज्य मुझे दे डाला ,उस चितवन ने पीड़ा का।।

किन्तु अन्त में उन्होंने अपनी वेदना पर ऐसी विजय प्राप्त कर ली है कि अब उन्हें विरह में मिलन की , न दुःख में सुख की अनुभूति होने लगी है ~~

विरह का युग आज दीखा ,मिलन के लघु पल सरीखा।
दुःख सुख में कौन तीखा ,मैं न जानी और न सीखा।।

इन्हें ही पढ़ें[सम्पादन]

सन्दर्भ[सम्पादन]

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