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कछवाहा

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कछवाहा


कछवाहा वंश अयोध्या राज्य के सूर्यवंशी राजाओ की एक शाखा है। भगवान श्री रामचन्द्र जी के ज्येष्ठ पुत्र कुश से इस वंश (शाखा) का विस्तार हुआ है । अयोध्या राज्य पर कुशवाह वंश का शासन रहा है। अयोध्या राज्य वंश में इक्ष्वाकु दानी हरिशचन्द्र, सगर (इनके नाम से सगर द्वीप जहाँ गंगासागर तीर्थ स्थल है), पितृ भक्त भागीरथ , गौ भक्त दिलीप , रघु सम्राट दशरथ, मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान "रामचंद्र" एवं उनके ज्येष्ठ पुत्र महाराज कुश के वंशधर कुशवाहे कहलाये, कछवाहा राजपूत शिव और शक्ति के उपासक भी होते हैं।

बिहार में कछवाहा वंश का इतिहास - महाराजा कुश के वंशजो की एक शाखा अयोध्या से चलकर साकेत आयी और साकेत से, बिहार मे सोन नदी के किनारे रोहिताशगढ़ (बिहार) आकर वहा रोहताशगढ किला बनाया।

मध्यप्रदेश में कछवाहा वंश का इतिहास - महाराजा कुश के वंशजो की एक शाखा फिर बिहार के रोहताशगढ से चलकर पदमावती (ग्वालियर) मध्यप्रदेश मे आये। कछवाह वंशज के एक राजकुमार तोरुमार नरवर (तोरनमार) पदमावती (ग्वालियर) मध्यप्रदेश मे आये ।


नरवर (ग्वालियर ) के पास का प्रदेश कच्छप प्रदेश कहलाता था। । और वहा आकर कछवाह वंशज के एक राजकुमार तोरुमार ने एक नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर इस क्षेत्र को अपने कब्जे में किया। क्योकि यहा पर कच्छप नामक नागवंशीय क्षत्रियो की शाखा का राज्य था । (महाभारत आदि पर्व श्लोक 71) नागो का राज्य ग्वालियर के आसपास था । इन नागो की राजधानी पद्मावती थी, पदमावती राज्य पर अपना अधिकार करके सिहोनिया गाँव को अपनी सर्वप्रथम राजधानी बनायी थी । यह मध्यप्रदेश मे जिला मुरैना मे पड़ता है ।

आगे चलकर यह क्षेत्र राजा नल के कारण नरवर क्षेत्र कहलाया। कुशवाह राजाओं में राजा नल सुविख्यात रहा है, जिसकी वीरगाथा ढोला गायन के मार्फत सुनते आये हैं। समाज का अतीत अत्यधिक वैभवशाली रहा है। मध्यप्रदेश के एक राजा नल-दमयंती का पुत्र ढोला जिसे इतिहास में साल्ह्कुमार के नाम से भी जाना जाता है का विवाह राजस्थान के जांगलू राज्य के पूंगल नामक ठिकाने की राजकुमारी मारवणी से हुआ था जो राजस्थान के साहित्य में ढोला-मारू के नाम से प्रख्यात प्रेमगाथाओं के नायक है। इसी ढोला के पुत्र लक्ष्मण का पुत्र बज्रदामा बड़ा प्रतापी व वीर शासक हुआ जिसने ग्वालियर पर अधिकार कर एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इसी क्षेत्र मे कछवाहो के वंशज महाराजा सूर्यसेन ने सन् 750 ई. मे ग्वालियर का किला बनवाया था।

अत: स्पष्ट है कि कछवाहो के पूर्वजो ने आकर कच्छपो से युद्द कर उन्हे हराया और इस क्षेत्र को अपने कब्जे में किया । इसी कारण ये कच्छप, कच्छपघात या कच्छपहा कहलाने लगे और यही शब्द बिगडकर आगे चलकर कछवाह कहलाने लगा । यहां वर्षो तक कुशवाह का शासन रहा।

नरवर (ग्वालियर) राज्य के राजा ईशदेव जी थे और राजा ईशदेव जी के पुत्र सोढदेव के पुत्र, दुल्हराय जी नरवर (ग्वालियर) राज्य के अंतिम राजा थे।


राजस्थान में कछवाहा वंश का इतिहास - कछवाहा वंश राजस्थानी इतिहास के मंच पर बारहवीं सदी से दिखाई देता है। सोढदेव जी का बेटा दुल्हराय जी जिसका विवाह राजस्थान में मोरागढ़ के शासक रालण सिंह चौहान की पुत्री से हुआ था। रालण सिंह चौहान के राज्य के पड़ौसी दौसा के बड़गुजर राजपूतों ने मोरागढ़ राज्य के करीब पचास गांव दबा लिए थे। अत: उन्हें मुक्त कराने के लिए रालण सिंह चौहान ने दुल्हेराय को सहायतार्थ बुलाया और दोनों की संयुक्त सेना ने दौसा पर आक्रमण कर बड़गुजर शासकों को मार भगाया। दौसा विजय के बाद दौसा का राज्य दुल्हेराय के पास रहा। दौसा का राज्य मिलने के बाद दुल्हेराय ने अपने पिता सोढदेव को नरवर से दौसा बुला लिया और अपने पिता सोढदेव जी को विधिवत दौसा का राज्याभिषेक कर दिया गया। इस प्रकार राजस्थान में दुल्हेराय जी ने सर्वप्रथम दौसा में कछवाह राज्य स्थापित कर अपनी राजधानी सर्वप्रथम दौसा स्थापित की। राजस्थान में कछवाह साम्राज्य की नींव डालने के बाद दुल्हेराय जी ने भांडारेज, मांच, गेटोर, झोटवाड़ा आदि स्थान जीत कर अपने राज्य का विस्तार किया।

दौसा से इन्होने ढूढाड क्षेत्र में मॉच गॉव पर अपना अधिकार किया जहॉ पर मीणा जाति का कब्जा था, मॉच (मॉची) गॉव के पास ही कछवाह राजवंश के राजा दुलहराय जी ने अपनी कुलदेवी श्री जमवाय माता जी का मंदिर बनबाया । कछवाह राजवंश के राजा दुलहराय जी ने अपने ईष्टदेव भगवान श्री रामचन्द्र जी तथा अपनी कुलदेवी श्री जमवाय माता जी के नाम पर उस मॉच (मॉची) गॉव का नाम बदल कर जमवारामगढ रखा।

इस वंश के प्रारम्भिक शासकों में दुल्हराय बडे़ प्रभावशाली थे, जिन्होंने दौसा, रामगढ़, खोह, झोटवाड़ा, गेटोर तथा आमेर को अपने राज्य में सम्मिलित किया था। सोढदेव की मृत्यु व दुल्हेराय के गद्दी पर बैठने की तिथि माघ शुक्ला 7 वि.संवत 1154 है I ज्यादातर इतिहासकार दुल्हेराय जी का राजस्थान में शासन काल वि.संवत 1154 से 1184 के मध्य मानते है I

क्षत्रियों के प्रसिद्ध 36 राजवंशों में कछवाहा वंश के कश्मीर, राजपुताने (राजस्थान) में अलवर, जयपुर, मध्यप्रदेश में ग्वालियर, राज्य थे। मईहार, अमेठी, दार्कोटी आदि इनके अलावा राज्य, उडीसा मे मोरमंज, ढेकनाल, नीलगिरी, बऊद और महिया राज्य कछवाहो के थे। कई राज्य और एक गांव से लेकर पाँच-पाँच सौ ग्राम समुह तक के ठिकानें , जागीरे और जमींदारीयां थी राजपूताने में कछवाहो की 12 कोटडीया और 53 तडे प्रसिद्ध थी

आमेर के बाद कछवाहो ने जयपुर शहर बसाया, जयपुर शहर से 7 किमी की दूरी पर कछवाहो का किला आमेर बना है और जयपुर शहर से 32 कि.मी. की दूरी पर ऑधी जाने वाली रोड पर जमवारामगढ है। जमवारामगढ से 5 किमी की दूरी पर कछवाहो की कुलदेवी श्री जमवाय माता जी का मंदिर बना है । इस मंदिर के अंदर तीन मूर्तियॉ विराजमान है, पहली मूर्ति गाय के बछडे के रूप में विराजमान है, दूसरी मूर्ति श्री जमवाय माता जी की है, और तीसरी मूर्ति बुडवाय माता जी की है।

श्री जमवाय माता जी के बारे में कहा गया है, कि ये सतयुग में मंगलाय, त्रेता में हडवाय, द्वापर में बुडवाय तथा कलियुग में जमवाय माता जी के नाम से देवी की पूजा - अर्चना होती आ रही है ।

धरती आ ढुंढ़ाड़ री, दिल्ली हन्दी ढाल।

भुजबल इण रै आसरै,नित नित देस निहाल ।।

ढुंढ़ाड़ (जयपुर,आमेर राज्य) की यह धरती सदा दिल्ली की रक्षक रही है | इसके बल के भरोसे ही देश हमेशा कृतार्थ व सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त रहा है :

स्वाभिमानी कुशवाह क्षत्रिय ने अपने मूल राज्य आमेर व निकट क्षेत्रों से उजड़कर जाजऊ-पार्वती नदी (उत्तरप्रदेश-राजस्थान सीमा) के पास किला बनाकर (वर्तमान जाजऊ की सराय) कुशवाह क्षत्रिय का पुन: एक और समानान्तर राज्य सिथापित किया था। साथ ही साथ वाड़ी व निदारा (धौलपुर) में मिट्टी के बुर्जदार किले रक्षा हेतु बनाए। परन्तु मुगल सेना ने पुन: स्थापित राज्य से सत्ताविहीन कर दिये जाने पर स्वाभिमानी कछवाह राजपूतों ने, पुन: राज्य स्थापित करने का मानस बदलकर निकट व दूर (वर्तमान राजस्थान, उ.प्र., म.प्र, व बिहार प्राप्त) अपना नया ठिकाना बनाया। कछवाह परिवारों का सन्तोष के साथ भरण-पोषण करने लगे, परन्तु जो समाज पहले से ही निवास कर रहा था, उनके पास पर्याप्त जमीन थी। पीढ़ी दर पीढ़ी समाज, गरीबी व अशिक्षा से ग्रसित होता गया। मुगलों से बचाव हेतु अपने को राजपूत कहना त्याग दिया। कुशवाहों की बस्तियों व गाँवों में जागा-भाट समय -समय पर आते रहते हैं और उपरोक्त वंशावली अपनी पोथी से बयान करते हैं। जागा-भाट एवं इतिहासकार समाज का निकास, तत्कालीन राज्य आमेर, ग्वालियर एवं अयोध्या राज्य से बतलाते आ रहे हैं।


वर्तमान में मध्य प्रदेश के ग्वालियर, नरवरगढ़ एवं जाजऊ किलों के निकट व अन्य दूर क्षेत्रों में आज भी सूर्यवंशीं कुशवाह क्षत्रिय समाज की घनी आबादी है। राजस्थान के तत्कालीन आमेर राज्य में (वर्तमान दौसा, अलवर, सवाईमाधोपुर, जयपुर व टोंक जिलो के क्षेत्र) कुशवाह की विशेष बहुलता थी। स्वाभिमानी कछवाहों के उजड़ने के बाद जातीय समीकरण बिगड़ गया, पुन: मीणा जाति का जनाधार वाला क्षेत्र हो गया, इस भय के कारण राजा मानसिंह ने जातीय समीकरण उचित रखने के लिए हरियाणा राज्य से, किसी खेतीहर जाति को आर्थिक, जमीन एवं मकान से सहायता कर विस्थापित किया, और जातीय समीकरण उचित करने का प्रयास किया, परन्तु कछवाह क्षत्रिय की जनसंख्या फिर भी कम ही रही। यह समाज अपने को हरियाणा ब्राह्मण कहता है एवं जयपुर राज-परिवार के स्वामिभक्त होने के साथ-साथ राज-परिवार का गुणगान भी करता है।

दुल्हेराय जी के वंशज जो राजस्थान में कछवाह वंश की उपशाखाओं यथा - राजावत, शेखावत, नरूका, नाथावत, खंगारोत आदि नामों से जाने जाते है आज भी जन्म व विवाह के बाद जमवाय माता जी के जात (मत्था टेकने जाते है) लगाते है I राजस्थान में दौसा के आप-पास बड़गुजर राजपूतों व मीणा शासकों पतन कर उनके राज्य जीतने के बाद दुल्हेराय जी ग्वालियर की सहायतार्थ युद्ध में गए थे जिसे जीतने के बाद वे गंभीर रूप से घायलावस्था में वापस आये और उन्ही घावों की वजह से माघ सुदी 7 वि.संवत 1112, 28 जनवरी 1135 ई. को उनका निधन हो गया और उनके पुत्र कांकलदेव खोह की गद्दी पर बैठे जिन्होंने आमेर के मीणा शासक को हराकर आमेर पर अधिकार कर अपनी राजधानी बनाया जो भारत की आजादी तक उनके वंशज के अधिकार में रहा I

कछवाहों की खापें निम्न है:-

देलणोत , ननवग (नन्दवक), झामावत ,घेलणोत , राल्णोत ,जीवलपोता ,आलणोत (जोगी कछवाहा) , प्रधान कछवाहा , सावंतपोता, खीवाँवात , बिकसीपोता,पीलावत ,भोजराजपोता (राधर का,बीकापोता ,गढ़ के कछवाहा,सावतसीपोता) ,सोमेश्वरपोता,खींवराज पोता, दशरथपोता,बधवाड़ा,जसरापोता, हम्मीरदे का , भाखरोत, सरवनपोता,नपावत,तुग्या कछवाहा, सुजावत कछवाहा, मेहपाणी , उग्रावत , सीधादे कछवाहा, कुंभाणी , बनवीरपोता,हरजी का कछवाहा,वीरमपोता, मेंगलपोता, कुंभावत, भीमपोता या नरवर के कछवाहा, पिचयानोत , खंगारोत,सुल्तानोत, चतुर्भुज, बलभद्रपोत, प्रताप पोता, नाथावत, बाघावत, देवकरणोत , कल्याणोत, रामसिंहहोत, साईंदासोत, रूप सिंहसोत, पूर्णमलोत , बाकावत , राजावत, जगन्नाथोत, सल्देहीपोता, सादुलपोता, सुंदरदासोत , नरुका, मेलका, शेखावत, करणावत , मोकावत , भिलावत, जितावत, बिझाणी, सांगणी, शिवब्रह्मपोता , पीथलपोता, पातलपोता।

[१]

मूल[सम्पादन]

कछवाहा(कुशवाहा) वंश सूर्यवंशी राजपूतों की एक शाखा है। कुल मिलाकर बासठ वंशों के प्रमाण ग्रन्थों में मिलते हैं। ग्रन्थों के अनुसार: अर्थात दस सूर्य वंशीय क्षत्रिय दस चन्द्र वंशीय,बारह ऋषि वंशी एवं चार अग्नि वंशीय कुल छत्तिस क्षत्रिय वंशों का प्रमाण है,बाद में भौमवंश नागवंश क्षत्रियों को सामने करने के बाद जब चौहान वंश चौबीस अलग अलग वंशों में जाने लगा तब क्षत्रियों के बासठ अंशों का प्रमाण मिलता है। इन्हीं में से एक क्षत्रिय शाखा कछवाहा (कुशवाहा) निकली। यह उत्तर भारत के बहुत से क्षेत्रों में फ़ैली हैं, आजकल क्षत्रियों के अलावा कुछ जातियों के लोग खुद को कुश का वंशज बताते हैं और कुशवाहा बोलते हैं पर इसके प्रमाण नही हैं उनके पास, अयोध्या के राम मंदिर पर कोर्ट ने सुनवाई के दौरान पूछा कि क्या कोई राम का वशंज है, कोर्ट के इस सवाल के बाद जयपुर राजघराने ने वंशावली और प्रमाण के साथ दावा किया था कि वो श्रीराम के वंशज हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि राम के वंशज आज भी हैं और वो कछवाहा राजपूत हैं ।

शासक[सम्पादन]

कछवाहा वंश के शासक हणुदेव जान्हड देव पजवन देव मालसी बिजल देव रामदेव किल्हल कुंतल जुणसी उदयकरण – इन्होने आमेर में शेखावाटी को मिलाया। इनके प्रपौत्र नरू द्वारा कछवाहा की नरूका शाखा चली। इनके अन्य वंशज बाला के पौत्र शेखा के वंशज शेखावत कहलाये। नरसिंह उदरण चन्द्रसेन पृथ्वीराज – 1503 – 1527 ई – इन्होनें महाराणा सांगा की तरफ से खानवा के युद्ध मे बाबर के विरुद्ध भाग लिया था “बारह कोटडियो” की स्थापना के कारण कछवाहा वंश के इतिहास में इनका नाम प्रसिद्ध है। पूर्णमल – 1527 – 1533 ई भीमदेव – 1533 – 1537 ई रतन सिंह – 1537 – 1548 ई – इनके चाचा सांगा ने सांगानेर की स्थापना की

Bharmal ( भारमल 1548 – 1574 ई )- राजस्थान के प्रथम राजपूत शासक थे जिन्होंने सबसे पहले अकबर मुगलों के साथ वैवाहिक संबंध कायम किए!

हरखूबाई:- भारमल की पुत्री, इतिहास में बेगम मरियम उज्जमानी के नाम से प्रसिद्ध हुई। इनका विवाह 1562 ई. में अकबर के साथ सांभर में हुआ। जहाँगीर इन्ही का पुत्र था।जोधा बाई एक ‘उपाधि’नाम है जो अकबर एवं जहाँगीर की पत्नियों में से मुख्य पत्नी को प्रदान किया जाता था।यह उपाधि के आसिफ द्वारा निर्देशित फिल्म मुगल-ए-आजम के बाद में अधिक प्रचलित हुई है।


भारमल की सहायता से अकबर ने 1570 ईस्वी में नागौर दरबार लगाया।

भारमल की उपाधियाँ :- राजा, अकबर ने अमीर-उल-उमरा की उपाधि दीं।

Bhagvant Das ( भगवन्त दास 1574 – 1589 ई ) भारमल का जेष्ट पुत्र मानसिंह भगवान दास का दत्तक पुत्र था अकबर ने राजपूतों में पहली बार भगवंत दास को 5000 की मनसबदारी दी

मानबाई भगवानदास की पुत्री थी, 13 फरवरी, 1585 को जहाँगीर से लाहौर में विवाह होने के बाद “सुल्ताना मस्ताना” के नाम से जानी गई। खुसरों मान बाई और जहाँगीर का पुत्र था। 6 मई 1604 को मानबाई ने अफीम खाकर आत्महत्या कर ली।

भगवान दास की मृत्यु लाहौर में हुई

Man Singh ( मानसिंह 1589 – 1614 ई ) मानसिंह का जन्म 6 दिसंबर 1550 को हुआ भगवंतदास की मृत्यु के बाद 14 नवंबर 1589 में आमेर का शासन उसके दत्तक पुत्र मानसिंह ने सम्भाला आमेर राजस्थान का प्रथम राज्य था जिसने मुगलों के साथ सहयोग और समर्पण की नीति अपनाई,अकबर नें मानसिंह को राजा की उपाधि दी, मानसिंह एकमात्र ऐसे राजा थे जिन्होंने मुगल काल में सबसे ज्यादा मंदिर बनवाए, लोग ऐसा मानते हैं कि मानसिंह ने अपनी पुत्री जोधा की शादी अकबर से करवा दी थी पर इसका जिक्र अकबरनामा या किसी किताब में नही मिलता, अकबर के नवरत्नों में से एक मानसिंह को अकबर ने उस का सर्वोच्च 7000 का मनसब प्रदान किया था | मानसिंह ने बंगाल एवं बिहार का सूबेदार बनकर मुगल सत्ता के विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया हिंदुस्तान का सबसे बड़ा मनसब 7000 और सबसे छोटा 10 मनसब

मुगल सेवा में इतने उच्च पद पर पहुंचने वाला मानसिंह राजस्थान का पहला शासक था संत दादू दयाल मान सिंह के दरबारी थे दादू दयाल एकमात्र ऐसे संत थे जिन्हें अकबर ने धार्मिक वाद विवाद के लिए एक बार फतेहपुर सीकरी आमंत्रित किया था

मानसिंह की छतरी हाड़ी पुर (आमेर) में बनी हुई है मानसिंह ने बंगाल में अकबरनगर नामक कस्बा बसाया जिसे वर्तमान में राजमहल कहा जाता है मानसिंह द्वारा पुष्कर में मान महल नामक महल का निर्माण करवाया गया था जिसमें वर्तमान में आर टी डी सी का होटल संचालित है

हल्दीघाटी के युद्ध में यह अकबर के प्रधान सेनापति थे।

मानसिंह ने बिहार में माननगर बंगाल में अकबरनगर आमेर के दुर्ग में शीला देवी जगत शिरोमणि मंदिर वृंदावन में गोविंद जी का मंदिर बनवाया दो मुगल बादशाह अकबर और जहांगीर के साथ कार्य किया, आमेर राजा मानसिंह ने हरिनाथ, सुंदरदास एवं जगतनाथ जैसे विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया

मीनाकारी कला राजस्थान में सर्वप्रथम मानसिंह द्वारा लाई गई

मानसिंह ने महाराणा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व सम्भाला मानसिंह ने बंगाल के जेस्सोर से शीलादेवी की मूर्ति लाकर आमेर के महलो में स्थापित करवाई

मानसिंह ने अपने पुत्र जगतसिंह की याद में “जगत शिरोमणि मन्दिर” का निर्माण आमेर में करवाया 1614 में अमरावती के अचलपुर (एलिचपुर) में मृत्यु हो गयी और उसके जयेष्ट पुत्र मिर्जा राजा भावसिंह ने गद्दी सम्भाली

जगत सिंह की याद में जगत शिरोमणि मंदिर का निर्माण मान सिंह के स्थान पर उसकी पत्नी रानी कनकावती ने करवाया था

स्वतंत्र सेनापति के रूप में मानसिंह ने अपना प्रथम सैन्य अभियान 18 जून 1576 को हल्दीघाटी के युद्ध में किया था


काबुल अभियान( 1581) यह मुगलों का पहला और अंतिम अभियान था जिसमें सर्वाधिक राजपूतों ने भाग लिया था इस अभियान के उपरांत मानसिंह को काबुल का सूबेदार बना दिया गया

मानसिंह के समय निम्न ग्रंथों की रचना हुई

जगन्नाथ द्वारा- मानसिंह कीर्ति मुक्तावली दलपत राज द्वारा- पत्र प्रशस्ति और पवन पश्चिम आदि ग्रंथों की रचना की गई हापा बारहठ मानसिंह का राज कवि था

भावसिंह 1614 – 1621 ई Mirza Raja Jaisingh ( मिर्जा राजा जयसिंह 1621- 67 ई ) उपाधि – मिर्ज़ा शाहजहाँ ने 1638 में रावलपिंडी में बुलाकर दी थी

मिर्जा राजा जयसिंह का दरबारी कवि बिहारी था इसने 1663 ईस्वी में बिहारी सतसई की रचना की इस पुस्तक के प्रत्येक दोहे पे जयसिंह द्वारा एक स्वर्ण मुद्रा दी जाती थी, इन्होंने 1665 ईस्वी में शिवाजी के पुरंदर दुर्ग में 44000 सैनिकों के साथ डेरा डाला

पुरंदर की संधि- 11जून 1665 शिवाजी और मिर्ज़ा राजा जयसिंह, उस समय वहां बर्नियर नामक यात्री उपस्थित थे। इन्होंने 3 मुग़ल शासकों के समकालीन शासन किया-जहांगीर-शाहजहाँ-औरगंजेब, मृत्यु-1667 ई में दक्षिण अभियान से लौटते हूए बुरहानपुर में रामसिंह – 1667 – 1689 ई बिशन सिंह – 1689 – 1699 ई Sawai Jai Singh II ( सवाई जयसिंह द्वितीय 1699 – 1743 ई ) बिशनसिंह का पुत्र विजयसिंह (जयसिंह) के नाम से 1700 ई. में आमेर का शासक बना इतिहासकारों ने जयसिंह द्वितीय को चाणक्य की संज्ञा दी, “सवाई” की उपाधि औरंगजेब ने दी |

इन्होंने सर्वाधिक सात मुगल बादशाहों के साथ कार्य किया। मुगल सम्राटों द्वारा सवाई जयसिंह को तीन बार मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया

औरंगजेब की मृत्य के बाद उत्तराधिकारी संघर्ष में शहजादे मुअज्जम (बहादुरशाह) की विजय हुयी लेकिन जयसिंह में आजम का साथ दिया था जिससे नाराज होकर बादशाह मुअज्जम (बहादुरशाह) ने जयसिंह के छोटे भाई को आमेर का शासक बनाया तथा आमेर का नाम “मोमिनाबाद” रखा

सवाई जयसिंह ने मराठो की बढती शक्ति के विरुद्ध राजपूत शासको को संगठित करने के लिए हुरडा नामक स्थान पर 17 जुलाई 1734 को राजपुताना के शासको का सम्मेलन बुलाया

जिसकी अध्यक्षता महाराणा जगतसिंह ने की , इसमें सहयोग का समझौता हुआ लेकिन पालन नही हो सका सवाई जयसिंह ने 1727 ई. को जयनगर (जयपुर) की स्थापना की इसके वास्तुविद विद्याधर भट्टाचार्य थे

सवाई जयसिंह ने जयपुर , दिल्ली , उज्जैन , बनारस एवं मथुरा में वैधशालाओ (जन्तर-मंतर) का निर्माण करवाया सवाई जयसिंह ने नक्षत्रो की शुद्ध सारणी “जीज मुहम्मदशाही” बनाई और मुगल शासक मुहम्मदशाह को समर्पित की “जयसिंह कारिका” (ज्योतिष ग्रन्थ) की रचना की

सवाई जयसिंह के दरबारी “पुंडरिक रत्नाकर” ने जयसिंह कल्पमुद्रम की रचना की

जयपुर पहला नगर में जो नक्शों के आधार पर बसाया गया सवाई जयसिंह अंतिम हिंदू राजा थे जिन्होंने राजसूर्य/अश्वमेध यज्ञ सिटी पैलेस के चंद्र महल में करवाया।(इस यज्ञ के राजपुरोहित-पुण्डरीक रत्नाकर थे।)


ब्राह्मणों के रहने हेतु सवाई जयसिंह ने जल महल का निर्माण करवाया। जयपुर में कनक वृंदावन का निर्माण सवाई जयसिंह द्वारा करवाया गयासवाई जयसिंह द्वितीय ने विधवा पुनर्विवाह हेतु नियम बनाने का प्रयत्न किया। सवाई जयसिंह के शासन काल में सेना की भर्ती और वेतन के लिए बख्शी अधिकारी उत्तरदायी था।

Sawai Ishwari Singh ( सवाई ईश्वरी सिंह 1743-50 ई ) महाराजा सवाई जयसिंह का पुत्र ईश्वरीसिंह 1743 ईस्वी में जयपुर का शासक बना ईश्वरी सिंह के शासक बनने से नाराज होकर उसके भाई माधोसिंह ने बुंदी और मराठो की संयुक्त सेना की सहायता से जयपुर पर आक्रमण किया राजमहल (टोंक) के युद्ध (1747 ई.) में ईश्वरीसिंह विजयी रहे इसमें ईश्वरीसिंह जीता इस खुशी की में जयपुर के त्रिपोलिया बाजार में 7 मंजिला सरगासूली बनवाई।

इस विजय के उपलक्ष्य में जयपुर में ईसरलाट (सरगासूली) का निर्माण करवाया 1748 ई. के बगरू के युद्ध में ईश्वरीसिंह हार गये एवं 1750 ई. में मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर के आक्रमण से परेशान होकर ईश्वरीसिंह ने आत्महत्या कर ली |

Maharaja Sawai Madhu Singh 1 ( महाराजा सवाई माधोसिंह प्रथम 1750-68 ई ) ईश्वरी सिंह के पश्चात जयपुर के शासक बने सवाई माधोसिंह प्रथम को मराठो की भारी-भरकम रकम की मांग पुरी न करने पर मराठा सैनिको ने जयपुर में लूटमार की जिसके कारण भड़की जनता ने मराठा सैनिको को मार डाला |

बादशाह अहमदशाह द्वारा रणथ्म्भोर का दुर्ग माधोसिंह को सौंपने से नाराज होकर कोटा के महाराव जालिम सिंह ने जयपुर पर आक्रमण किया

भटवाडा युद्ध – दोनों के मध्य 1761 में भटवाडा का युद्ध हुआ जिसमे जयपुर की सेना हार गयी

सवाई माधोसिंह ने रणथ्म्बौर के निकट सवाई माधोपुर बसाया व जयपुर में मोती डूंगरी के महलो (तख्तेशाही महल) का निर्माण करवाया , 18 शताब्दी में माधोसिंह प्रथम ने अपने राज्य खिलाड़ियों को संरक्षण दिया। उन्हें दूसरे देश के स्थानों में प्रतियोगिता में भाग लेने हेतु भेजा।

महाराजा पृथ्वीराज – 1868 – 1878 ई Sawai Pratap Singh ( सवाई प्रताप सिंह 1778-03 ई ) सवाई प्रतापसिंह ने शासनकाल में जयपुर एवं जोधपुर राज्य की संयुक्त सेना ने तुंगा के युद्ध (1787 ई.) में मराठो को हराया विद्वानों के आश्रय दाता प्रतापसिंह स्वयं “ब्रजनिधि” के उपनाम से काव्य रचना करते थे

ब्रजनिधि ग्रन्थावली इनकी रचनाओं का संग्रह है सवाई प्रतापसिंह के दरबार में बाईसी भरमार थी। अर्थात 22 कवि 22 ज्योतिषी 22 संगीतज्ञ एवं 22 विषय विशेषज्ञ के रूप में गंधर्व बाईसी उपस्थित थे। इनमे ब्रजपाल भट्ट , द्वारकादास , उस्ताद चाँद खा (प्रतापसिंह के संगीत गुरु) एवं गणपत भारती (काव्य गुरु) प्रमुख थे |

इसने जयपुर में एक संगीत सम्मेलन का आयोजन करवाया जिसके अध्यक्ष देदऋषि ब्रजपाल भट्ट थे। इस सम्मेलन में राधा गोविंद संगीत सार नामक ग्रंथ की रचना की गई।

सवाई प्रतापसिंह ने “राधा गोविन्द संगीतसार” नामक संगीत ग्रन्थ की रचना करवाई, सवाई प्रतापसिंह ने जयपुर में 1799 ई. में हवामहल का निर्माण करवाया जिसकी आकृति उनके आराध्य देवता श्रीकृष्ण के मुकुट के समान बनाई गयी

तुंगा के मैदान में सिंधिया को हराया। जयपुर के इतिहास में सवाई प्रताप सिंह को कला संगीत एवं साहित्य का आश्रयदाता माना जाता है।

Jagat Singh II ( जगत सिंह द्वितीय 1803-18 ई ) जगतसिंह के शासनकाल में उदयपुर महाराणा भीमसिंह की पुत्री कृष्णा कुमारी को लेकर जयपुर एवं जोधपुर के मध्य गींगोली का युद्ध हुआ।जिसमे जयपुर की सेना विजयी रही जगत सिंह को जयपुर का बदनाम शासक के रूप में जाना जाता है। जगत सिंह की प्रेमिका रसकपूर नामक वेश्या के कारण।

मराठो एवं पिण्डारियो के आक्रमण से परेशान होकर 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी से जगतसिंह ने संधि कर ली 21 दिसम्बर 1818 को देहांत हो गया |

सवाई जयसिंह तृतीय – 1818- 1835 ई Maharaja Ram Singh II ( महाराजा रामसिंह द्वितीय 1835-80 ई ) रामिसंह मात्र 16 वर्ष की आयु में राजा बना वयस्क होने पर जयपुर का प्रशासन अंग्रेजो ने सम्भाला 1843 में लार्ड लुडलो प्रशासक बनकर आये , उन्होंने सामाजिक कुरीतियाँ सती प्रथा , दास प्रथा , कन्या वध एवं दहेज प्रथा पर रोक लगाई

रामसिंह द्वितीय ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों की तन मन धन से सहायता की उसके बदले में इन्हीं सितारे ए हिंद की उपाधि व कोटपूतली का परगना मिला।

इन्होंने मदरसा ए हुनरी (राजस्थान ऑफ आर्ट्स), महाराजा कॉलेज, संस्कृत कॉलेज, रामप्रकाश थियेटर (राजस्थान का सबसे प्राचीन) 1876 में प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा की स्मृति में अल्बर्ट हाॅल बनवाया। अल्बर्ट हॉल का शिलान्यास प्रिंस अल्बर्ट एडवर्ड सप्तम प्रिंस ऑफ वेल्स ने किया।

इसके वास्तुकार सर स्टीवन थे जयपुर शहर को 1876 ईस्वी में प्रिंस अल्बर्ट के आगमन की खुशी में रामसिंह द्वितीय ने पिंक रंग से पुतवाया।

रामसिंह द्वितीय को जयपुर का समाज सुधारक शासक कहा जाता है। 1876 ई. प्रिंस ऑफ़ वेल्स अल्बर्ट की स्मृति में जयपुर में अल्बर्ट हॉल का शिलान्यास करवाया | रामसिंह द्वितीय ने जयपुर में “मदरसा हुनरी” (महाराजा स्कूल ऑफ़ आर्ट) का निर्माण करवाया | इस संस्था का दूसरा नाम “तस्वीरा रो कारखानों” था |

Maharaja Madhosinh II ( महाराजा माधोसिंह द्वितीय 1880-1922 ई ) यह प्रिंस अलबर्ट एडवर्ड सप्तम के राज्य अभिषेक में भाग लेने इंग्लैंड गए। इस यात्रा के दौरान चांदी के दो पात्रों में गंगाजल भरकर ले गए जो आज भी सिटी पैलेस में मौजूद है।

इन्होंने पंडित मदनमोहन मालवीय को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय हेतु पाँच लाख रूपये दान में दिए।

Mansingh II ( मानसिंह द्वितीय 1922-49 ई ) 30 मार्च 1949 के पश्चात इन्हें आजीवन राजप्रमुख बनाया गया। राजस्थान के प्रथम उच्च न्यायालय का उद्घाटन महाराजा सवाई मानसिंह के द्वारा किया गया।

महारानी गायत्री देवी ने गर्ल्स स्कूल राजस्थान का पहला महिला कन्या विश्वविद्यालय की स्थापना जयपुर में की। राजस्थान की प्रथम महिला लोकसभा सदस्य गायत्री देवी (जयपुर) थी। “एक राजकुमारी की यादें” महारानी गायत्री देवी की आत्मकथा का शीर्षक है।

Sawai Bhavani Singh ( सवाई भवानी सिंह ) यह इस वंश के अंतिम शासक थे जिनका निधन 16 अप्रैल 2011 को हुआ!

अलवर का कछवाहा वश ( Alwar Qachwaha Dynasty ) अलवर राज्य का संस्थापक प्रतापसिंह(1775 – 1790) था जो आमेर नरेश महाराज उदयकर्ण के बड़े पुत्र बरसिंह की 15 वीं पीढ़ी में था।प्रतापसिंह ने 25 दिसम्बर, 1775 ई. को अलवर राज्य की स्थापना की। अलवर के राजा कछवाहा के राजवंश की लालावत नरुका की शाखा से सम्बन्धित थे।

26 दिसंबर 1790 को राव राजा प्रतापसिंह जी के निधन के बाद बख्तावरसिंह कछवाह (1790 – 1814)वंश की नरुका शाखा के राज्य अलवर के द्वितीय शासक बने अलवर के बकेत्श्वर महादेव का विशाल मंदिर बख्तावर सिंह द्वारा निर्मित है

1803 ई बख्तावर सिंह ने ईस्ट इंडिया कंपनी से संधि कर ली

विनय सिंह – ये 1815 ई में अलवर के राजा बने

मूसी महारानी की छतरी – इस दुमंजिला भवन का निर्माण विनय सिंह ने महाराजा बख्तावर सिंह और उनकी रानी मूसी के सम्मान में ईसा पश्चात वर्ष 1815 में करवाया था।

अलवर का संग्रहालय – 1837 में महाराजा विनयसिंह ने कुतुबखाना पुस्तकालय की स्थापना की।?

सिलीसेढ़- इस झील के मध्य स्थित टापू पर महाराजा विनयसिंह ने अपनी रानी शिला के लिए 1844 ई. में छ: मंजिला महल बनवाया।?

1857 ई की क्रान्ति के समय यह अलवर के राजा थे।

राजा जयसिंह – विनय सिंह के बाद शक्तिशाली व न्यायप्रिय शासक। शहर के सबसे करीब जय समन्द झील है। इसका निर्माण अलवर के महाराज जय सिंह ने 1910 में पिकनिक के लिए करवाया था।

सरिस्का पैलेस- इसका निर्माण महाराजा जयसिंह ने ड्यूक ऑफ एडिनब्रा की शिकार-यात्रा के उपलक्ष में करवाया।?

विजय मंदिर महल- 1918 में जयसिंह द्वारा निर्मित। इसमें सीताराम जी का प्रसिद्ध मन्दिर है।

जयसिंह ने ही नरेन्द्र मण्डल का नामकरण किया था। जयसिंह और रॉल्स रॉयस का विवाद विश्व प्रसिद्ध है। 1933 ई जयसिंह को तिजारा दंगो के बाद अंग्रेजों ने पद से हटा दिया। इसके बाद तेजसिंह शासक बने। जो एकीकरण तक शासक बने रहे।


प्रतापसिंह नरुका – मोहब्बतसिहं का पुत्र जिसने 1775 मे अलवर राज्य की स्थापना की। प्रारम्भ मे वह जयपुर नरेश की सेवा मे था।जब 1755मे मराठों ने रणथंभौर दुर्ग को घेर लिया तब उसने सैनिक सहायता देकर दुर्ग को मराठों के हाथों मे जाने से बचाया।सन् 1765 मे इसने मावणडा़ युद्ध मे भरतपुर नरेश जवाहरसिंह जाट के विरुद्ध जयपुर नरेंश माधोसिंह को सहायता दी थी।

अत: बादशाह ने 1774 मे इसको रावराजा बहादुर की उपाधि तथा पंज हजारी मनसब दी थी। सन् 1775 की 25 दिसंबर को वह एक स्वतंत्र शासक बन गया।

Kachwah dynasty important facts-


दूल्हा राय कछवाहा वंश का संस्थापक था, दूल्हा राय ने मंच या मांची का नाम बदलकर जमवारामगढ़ किया इसे कछवाहों की अगली राजधानी बनाया जमवारामगढ़ के पश्चात दूल्हा राय ने खोह को अपनी राजधानी बनाया राजदेव ने 1237मे आमेर दुर्ग के सबसे प्राचीन महल कदमी महल का निर्माण करवाया था यहां पर कछवाहा शासकों का राजतिलक होता था पृथ्वीराज ने अपने राज्य को अपने 12 पुत्र में विभाजित कर बारह कोटड़ी व्यवस्था प्रारंभ की थी पृथ्वीराज की रानी बाला बाई ने आमेर में लक्ष्मी नारायण मंदिर का निर्माण करवाया था पृथ्वीराज कछवाहा शासक चंद्रसेन का पुत्र था जिसने 1527 में खानवा के युद्ध में राणा सांगा का समर्थन किया था पृथ्वीराज के समय रामानंदी संप्रदाय के संत रामानंदी संप्रदाय के संत कृष्णदास पयहारी ने आमेर के पास गलता पीठ की स्थापना की पृथ्वीराज के गुरु चतुर नाथ थे जो कापालिक संप्रदाय के अनुयाई थे रामानुज संप्रदाय के संत कृष्णदास पयहारी ने गुरु चतुर नाथ को शास्त्राराथ में पराजित किया था पृथ्वीराज के पुत्र सांगा ने सांगानेर कस्बा बसाया था सांगानेर क्षेत्र को ही मोजमाबाद के नाम से भी जाना जाता था मंजनू का नामक व्यक्ति द्वारा ही दिसंबर 1556 में अकबर और भारमल की मित्रता कराई गई थी भारमल ने आमेर दुर्ग का निर्माण प्रारंभ करवाया था भगवान दास ने कुंवर और शासक दोनों ही रूप में अकबर की सेवा की थी अकबर द्वारा चलाए गए दीन ए इलाही धर्म (1576)को मानने से भगवान दास और मानसिंह दोनों ने इनकार कर दिया था अकबर के सेनापति के रूप में भगवान दास ने 1586 में कश्मीर को पहली बार जीतकर मुगल साम्राज्य का अंग बना दिया था



ref>Wadley, Susan Snow (2004). Raja Nal and the Goddess: The North Indian Epic Dhola in Performance. Indiana University Press. पृ॰ 110-111. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780253217240. https://books.google.com/books?id=UbsgVL4AGkoC&pg=PA110. </ref>[२]

संदर्भ[सम्पादन]

  1. Pinch, William R. (1996). Peasants and monks in British India. University of California Press. पृ॰ 12, 91–92. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-520-20061-6. https://archive.org/details/peasantsmonksinb0000pinc. अभिगमन तिथि: 22 February 2012. 
  2. Sadasivan, Balaji (2011). The Dancing Girl: A History of Early India. Institute of Southeast Asian Studies. पृ॰ 233-234. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9789814311670. https://books.google.com/books?id=980SAvbmpUkC&pg=PT255. 

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