पराप्राकृतिक विश्वास का वैज्ञानिक अध्ययन
पराप्राकृतिक विश्वास का वैज्ञानिक अध्ययन मानव जीवन और धर्म के मधुर सम्बंधों पर नयी खोजों का संक्षेप में परिचय है।[१][२][३] वैज्ञानिकों का मानना है कि पराप्राकृतिक विश्वास का लोगों के जीवन में लम्बे समय से महत्त्व रहा है, [४][५] शामन या ओझा के पुनःनिर्मित इतिहास के आधार पर यह अवधि ६५००० वर्ष होगी। [६] सभ्यता के विकास के साथ-साथ पराप्राकृतिक विश्वास ने धर्म का रूप लिया, और साहित्य, कला तथा समाज को प्रभावित किया।[७] अनुमान है कि पूरे विश्व में लगभग १०००० धर्म हैं, और प्रत्येक धर्म में अनेकों अलौकिक तत्व (देव और असुर)।[८] वैज्ञानिकों की सोच है कि, अधिकतर देवी-देवता छोटे-छोटे समुदायों (गाँव) तक सीमित हैं, परन्तु कुछ देवता लगभग १२००० वर्ष पहले से बड़े धर्मों में विकसित होना शुरू हुए होंगे और विश्व में फ़ैल गए।[९]
पिछले कुछ दशकों में, पराप्राकृतिक विश्वास[१०] के जैविक और सांस्कृतिक उद्विकास [११] पर नई खोजों में वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि उनका आशय किसी अलौकिक तत्व की भौतिक सत्ता से नहीं था, उन्होंने पाया कि देवी-देवताओं में विश्वास समूह के सदस्यों में सहयोग, मानसिक स्वास्थ्य तथा स्नेह की भावना के विकास में सहायक है।[१२][१३]
साहित्य[१४] और कला[१५] में हुई खोज से पता चलता है कि इनके अन्दर भी पराप्राकृतिक विश्वास की गहरी पैठ है, और अलौकिक तत्वों का अनोखा समावेश है, जैसे, रसल की चायदानी, उड़न तश्तरी, स्पाइडर-मैन, आदि।
देवी-देवताओं में विश्वास पर हुए इन अध्ययनों के चार मुख्य पहलू ग्रामीण परिवेश, मानसिक स्वास्थ्य, सहयोग, और स्नेह की भावना हैं।
ग्रामीण परिवेश[सम्पादन]
पराप्राकृतिक विश्वास से जुड़े अनगिनत लेख इस पहलू में आते हैं और स्थानीय समूहों की जीवन शैली के परिचायक हैं। ऐसे परिचय विश्व[१६], तथा क्षेत्रीय, जैसे पश्चिम हिमालय [१७], स्तर पर, विस्तृत रूप में उपलब्ध हैं। इन में एक ग्रामीण देवता में अलौकिक, न्यायविद, चिकित्सक, महावीर, भविष्यवक्ता, आदि गुण बताये गए हैं। इनका विस्तृत वर्णन भी है, जैसे भारत में, हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के लोक देवता, और उनसे सम्बंधित, गीत, कथाएं, लोकोक्तियां, नाट्य, भाषा, तथा परम्पराएं, और इनके अभिप्राय।[१८] एक अन्य प्रयास में, किन्नौर के देवी-देवता वहां की मुख्य जीवन शैली, अरण्यक भेड़-बकरी पालन के प्रमुख अंग हैं।[१९] इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, एक इतिहासकार की राय है कि स्थानीय विकास के कार्यक्रमों में, लोक चेतना की निर्णय लेने में भूमिका हो[२०]।
मानसिक स्वास्थ्य[सम्पादन]
दूसरे पहलू के अन्तरगत वह अध्ययन हैं जिनमें पराप्राकृतिक विश्वास, अलौकिक तत्वों की विविधता, तथा इनमें होने वाले बदलाव को मानसिक स्वास्थ्य से जोड़कर देखा गया। अशिस नंदी के लेख में भारत के तैंतीस करोड़ देवी-देवता जो छोटे-छोटे समूहों की जीवन शैलियों के प्रतिबिंब हैं, जिनमें इस बदलाव के साक्ष्य इन देवी-देवताओं के बाहरी प्रतीकों और परम्पराओं, तथा जन मानस की गहराई में देखे गए।[२१] एक अन्य सन्दर्भ लेकर, सुधीर ककड़ झाड़-फूंक में लगे ओझाओं तथा मुक्ति का सन्देश देते अध्यात्म गुरूओं को खोज की परीधि में लाकर, भारत जैसे देश में, अलौकिक तत्वों की मानसिक स्वास्थ्य में भूमिका ही तय नहीं की, इनका मनोविश्लेषण की विचारधारा के अनुरूप सटीक अध्ययन भी किया।[२२] मन की अन्य विचारधाराओं, मनोचिकित्सा [२३] तथा नृविज्ञान [२४], में हुए अध्ययन मानसिक स्वास्थ्य में अलौकिक तत्वों की सकारात्मक भूमिका के पक्षधर हैं।[२५][२६][२७]
सहयोग[सम्पादन]
तीसरा पहलू पराप्राकृतिक विश्वास तथा स्थानीय परम्पराओं पर सामाजिक जीव-विज्ञान तथा उद्विकास मनोविज्ञान में हुई खोजों के परिपेक्ष में है। माधव गाडगिल और उनके साथियों द्वारा देव वन की प्रथा और इसका जैविक सम्पदा के संरक्षण में योगदान का अध्ययन, जैविक और सांस्कृतिक, दोनों पक्षों को जोड़ता है।[२८][२९] अलौकिक तत्वों से जुड़े जटिल और महंगे अनुष्ठान वैज्ञानिक खोजों में सहयोग के उद्विकास में उपयोगी पाए गए।[३०] जाईगलातास और उसके साथियों ने, हिन्दुओं के थैपुसम त्यौहार में जटिल और मंहगे अनुश्ठान करने वाले कवाड़ी के भक्तों की तुलना साधारण भक्तों से की, कवाड़ियों में सहयोग की भावना ज्यादा थी।[३१] इनका विकास समूह चयन द्वारा संभव है, एक व्यक्ति नहीं, पूरा समूह (जिसमें ऐसे अनुष्ठानों की परम्परा है) फैलेगा या विलुप्त होगा।।[३२][३३] दुनिया में लोगों के छोटे-छोटे समूह, जिनमें देवता की छवि व्यक्ति के मन में सर्वोच्च ज्ञानवान, दंड देने वाले, तथा मर्यदारक्षक के रूप में है, आपसी सहयोग में सहायक है[३४]। संक्षेप में, इन खोजों का मुख्य बिन्दु, पराप्राकृतिक विश्वास और समाज में आपसी मेल-जोल है।
स्नेह की भावना[सम्पादन]
चौथा पहलू उन अध्ययनों पर केन्द्रित है जिनमें पराप्राकृतिक विश्वास और लोगों में आपसी स्नेह पर खोज हुई। मनोविज्ञान और इससे जुड़े दूसरे विषयों के संयुक्त प्रयास से, मन तथा व्यवहार पर देव आस्था का प्रभाव जानने के लिए ये नए प्रयोग हुए।[३५] इन मैंसे बहुत सी खोजों का मुख्य आधार, जॉन बाल्बी के स्नेह के सिद्धान्त[३६] को अलौकिक तत्वों के प्रति आस्था से जोड़ना है।[३७] स्नेह सिद्धान्त के चार संज्ञानात्मक या आतंरिक प्रारूप हैं, बच्चे का माँ, या भक्त का देवता, से निकट संबंध, इससे बिछुड़ने पर विरह वेदना, इसके सहारे परिसर की खोज, तथा, बाहरी भय से इसमें आसरा लेना।[३८][३९] इन आतंरिक प्रारूपों को, मनोवैज्ञानिकों ने भक्त का उसके अराध्य देवता से प्रेम समझने के लिए, प्रयोगों का आधार बनाया, जिसके सकारात्मक परिणाम मिले।[४०]
इन्हें भी देखें[सम्पादन]
- सामाजिक जीव-विज्ञान (अंग्रेज़ी में)
- उद्विकास मनोविज्ञान
- देव वन (अंग्रेज़ी में)
- समूह चयन (अंग्रेज़ी में)
सन्दर्भ[सम्पादन]
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