हनुमान लंगूर में पूँछ वहन
हनुमान लंगूर [१] | |
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हिमालयी हनुमान लंगूर में पूँछ वहन | |
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
जगत: | ऐनीमेलिया |
संघ: | कोरडेटा |
वर्ग: | मेमेलिया |
गण: | प्राइमेट्स |
कुल: | सरकोपिथेसिडेइ |
उपकुल: | कोलोबिनेई |
वंश: | सेमनोपीथेकस (पुराना नाम प्रेसबाईटेस ) |
हनुमान लंगूर में पूँछ वहन एक सहज व्यवहार है और जैव वैज्ञानिक रूनवाल के अनुसार भारत के लंगूरों में इसकी कई शैलियाँ हैं।[२] पूँछ वहन की इन शैलियों के आधार पर लंगूरों को समूहों में बांटा जा सकता है। पुरानी दुनिया का हनुमान लंगूर लगभग पूरे भारत में पाया जाता है, और हिन्दू इसे भगवन हनुमान का अवतार मानते हैं।[१][३]
फिलिप का कहना है कि भाषा और साहित्य में यह काले मूंह और लम्बी पूंछ वाला बंदर लांगुल का पर्याय है।[४] प्राणी विज्ञान में लंगूर नरवानर गण में आता है, पहले इसका नाम प्रेसबाईटेस एंटेलस था और इसकी १६ किसमों का वर्णन है,[१] किन्तु लगभग २००० के बाद इसका नाम सेमनोपीथेकस, और इसकी ज़्यादातर किस्मों को प्रजातियों में बदल दिया गया।[५] अर्थात हनुमान लंगूर या प्रेसबाईटेस, जिसकी पूंछ की बात यहाँ हो रही है, उसे अब सेमनोपीथेकस कहते हैं।
इस लेख के पहले भाग में लंगूरों में पूँछ वहन की चार मुख्य शैलियों का वर्णन, दूसरे भाग में हनुमान और लंगूर की पूँछ वहन शैलियों की तुलना, और अंत में बंदर की कुछ अन्य प्रजातियों की अनोखी पूँछों से परिचय है।
लंगूरों में पूँछ वहन[सम्पादन]
भारत में लंगूरों की कई किसमें हैं, जिन में रूनवाल ने अपने निरीक्षणों के आधार पर हनुमान लंगूर में पूँछ वहन की चार मुख्य शैलियों का वर्णन किया है, जो संलग्न चित्र में दिखाई गयी है।[६][७] उत्तरी भारत की लंगूरों की लगभग सारी किसमें अपनी पूँछ को पीठ के ऊपर से सिर की ओर ले जाकर एक छल्ला बनाती हैं, तथा पूँछ का अगला भाग शरीर के दायीं या बायीं ओर गिरता है। यह उत्तरी शैली है। इसके ठीक विपरीत, दक्षिण के लंगूरों की लगभग सारी किसमें अपनी पूँछ को उदगम स्थल से ऊपर उठाकर सिर से पीछे की ओर मोड़कर, अगला हिस्सा गिरा देते हैं, जिससे पूँछ की अंग्रेजी के ‘S’ अक्षर की आकृति बनती है। यह दक्षिणी शैली है। अपने अध्ययनों में रूनवाल ने पाया कि हिमालय में लंगूर की किसमें पूंछ को पीठ के ऊपर सिर की ओर ले जाती है, पर पूँछ का अगला भाग पीठ से ऊपर रहता है, और छल्ला एक तरफ से खुला होता है। यह उत्तरी हिमालय शैली है।[८] भारत के सुदूर दक्षिण और श्रीलंका में लंगूरों की किसमें पूँछ को को उदगम स्थल से ऊपर उठाकर लगभग अंग्रेजी के ‘S’ अक्षर की आकृति में ले जाती हैं, पर पूँछ का अगला हिस्सा नीचे न गिराकर, खुला छोड़ देती हैं। यह सुदूर दक्षिणी शैली है।
हनुमान लंगूर में पूँछ वहन से जुड़ी कुछ अन्य मुख्य बातें निम्न हैं।[६][७]
- हनुमान लंगूर में पूँछ वहन की दो मुख्य शैलियों, उत्तरी और दक्षिणी, को ताप्ति-गोदावरी नदियाँ अलग करती है। रूनवाल ने इस विभाजन को दर्शाने के लिए महाराष्ट्र के भारुच से एक आड़ी रेखा खींची जो भारत के मध्य से कृष्णा नदी के अंत तक जाती है।
- इस काल्पनिक रेखा के आस-पास, रूनवाल को लंगूरों के ऐसे समूह भी मिले जिन में पूँछ वहन की दोनों शैलियाँ, उत्तरी और दक्षिणी, पाई गयी।
- यही काल्पनिक रेखा, भारत के बंदरों की दो मुख्य प्रजातियों, उत्तरी लाल मूंह वाले रहेसस बंदर तथा दक्षिणी बोनेट बंदरों, को अलग कराती है।
- रूनवाल का मानना है कि उत्तरी और दक्षिणी पूँछ वहन शैलियां इतनी भिन्न हैं कि यह लंगूरों की किसमों के दो बड़े समूहों में अंतर को दर्शाती हैं। उनकी कल्पना है कि भारूच के आस-पास, कृष्णा और ताप्ति नदियों के बीच में पहले दक्षिणी पूँछ वहन शैली के समूह के लंगूर की उत्पत्ति हुई जिसके वंशज भारतीय प्रायद्वीप में श्रीलंका तक फैले। इसके बाद एक और अनुवांशिक परिवर्तन हुआ जिससे से उत्तरी पूँछ वहन शैली के समूह के लंगूर की उत्पत्ति हुई, जिसके वंशज उत्तर में हिमालय तक फ़ैल गए।
ब्रेंडन जोन्स ने रूनवाल द्वारा खोजी हनुमान लंगूर में पूँछ वहन की चार मुख्य शैलियों की लंगूरों में नए सिरे से वर्गीकरण के सन्दर्भ में विवेचना की है।[९] उन्होंने वह सारी जगह जहाँ से रूनवाल ने लंगूर में पूँछ वहन की जानकारी इकट्ठी की, उसको एक गजेट का रूप दिया।
चेतन नाग और उनके साथी भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग में हनुमान लंगूर में पूँछ वहन के २००९-२०१० के सर्वेक्षण तथा लंगूरों की प्रजातियों के भौगोलिक क्षेत्र के आंकलन से जानकारी एकत्र की।
- इन लोगों ने रूनवाल द्वारा उत्तरी और दक्षिणी पूँछ वहन शैलियों की पुष्टि की, और विभाजन को दर्शाने वाली आड़ी रेखा को ‘रूनवाल रेखा’ नाम दिया।[१०]
- लंगूरों में पूँछ वहन की दक्षिण की दो शैलियों, दक्षिणी और सुदूर दक्षिणी, का और विस्तार में वर्णन किया।[११]
- चेतन नाग और उनके साथियों ने पारिस्थितिकीय घटकों के आधार पर भारत में लंगूरों के नए वर्गिकरण की वकालत की है,[१२] जो अभी के दो वर्गिकरणों, ग्रोव[५] तथा ब्रेंडन जोन्स[९] से अलग है, और रूनवाल के वर्गिकरण से मेल खाने वाला, जैसे प्रेसबाईटेस एंटेलस या सेमनोपीथेकस एंटेलस का भौगोलिक क्षेत्र।
हनुमान और लंगूर में पूंछ वहन[सम्पादन]
लंगूर शब्द की उत्पत्ति को फिलिप लांगुल शब्द से जोड़ते हैं, और कालांतर इसमें हनुमान जुड़ गए।[४] इसका श्रेय वाल्मिकी ऋषी को जाता है, जिन्होंने राम कथा में हनुमान को पात्र लिया। फिलिप कहते हैं लंगूर कई अन्य रूपों में भी मनुष्यों से जुड़ा है। जैसे लंगूर के एक कपि के रूप में मनुष्य से सम्बन्ध को मान्यता चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत से भी मिलती है, जिसमें मनुष्यों की उत्पत्ति वानरों से बताई गयी। इतिहासकार[१३] और विद्वान[१४] हनुमान को आदिम भारत का देवता मानते हैं। हनुमान की आकृति आधा मनुष्य (वृष-पुरूष) आधा पशु (कपि) है, इसलिए इन विद्वानों के अनुसार वृष-कपि शब्द भी हनुमान के लिए प्रयोग होता है, जो गुहामानव का संकेत है।
देवी और लंगुरवीर के सम्बन्ध की विवेचना करते हुए, फिलिप हनुमान को, आम आदमी की मान्यताओं से जोड़ते हैं,[४] जैसे भदावर में लंगुरिया के गीत, और पंजाब के अमृतसर में लंगूर नृत्य। अमृतसर में दशहरे के त्यौहार के आते ही लोग देश-विदेश से हनुमान मंदिर में आना शुरू हो जाते हैं।[१५][१६] भक्तगण लंगूर का रूप धारण कर, मूंह पर हनुमान का मुखौटा, हाथ में गदा, लम्बी पूँछ, नंगे पाँव, उछल-कूद करते, अपने निवास स्थान से मंदिर पहुँचकर नृत्य करते हैं। यह कार्यक्रम पूरे दस दिन चलता है। लंगूर नृत्य संतान प्राप्ति के लिए मन्नत माँगने, और फिर संतान प्राप्ति के बाद, ख़ुशी ज़ाहिर करने के लिए किया जाता है।
रामायण के पात्र और वानरसेना के नायक के रूप में हनुमान जन मानस में महावीर के रूप में रूच गए। कला और साहित्य ने हनुमान का चित्रण विविध रूपों में हुआ। यहाँ तक कि अंग्रेजी साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। रुडयार्ड किपलिंग ने अन्य जंतुओं के साथ बंदरों और लंगूरों का अपनी पुस्तकों में वर्णन किया।[१७][१८] फ्रीदा हाउस्विर्थ दास की पूरी पुस्तक लंगूरों के सामाजिक व्यवहार और मनुष्यों से सम्बंधों पर उड़ीसा की प्रष्टभूमि में है।[१९] ओक्टावियो पाज़ ने भी अपनी पुस्तक में हनुमान के मिथक का चित्रण किया।[२०]
रूनवाल, जिन्होंने लंगूरों में पूँछ वहन का विस्तार से अध्ययन किया, जिसका परिचय पहले भाग में दिया गया, उपरोक्त मानव-बंदर सम्बन्धों को धर्मजीवविज्ञान के अन्तर्गत चिन्हित किया।[२१] इस दिशा में उन्होंने हनुमान और लंगूर में पूँछ वहन के अध्ययन से पहल की। रूनवाल ने हनुमान के उन चित्रों का अध्ययन किया जिनमें पूँछ स्पष्ट दिखाई देती है। चित्रकारों ने हनुमान की पूँछ को पीठ के समानांतर अंग्रेजी के ‘S’ अक्षर की आकृति में उकेरा है। रूनवाल लिखते हैं शायद चित्रकार वास्तविक लंगूरों में पूँछ वहन की शैली से अनभिज्ञ हैं। अगर वह जानते होते तो उत्तर भारत में हनुमान की पूँछ वहन शैली को उत्तरी रूप में बनाते, अर्थात अंग्रेजी के ‘S’ अक्षर की आकृति में नहीं।
बंदरों की अन्य प्रजातियों में पूँछ[सम्पादन]
रूनवाल लिखते हैं लेनियस ने स्वयं पूँछ की लम्बाई को वर्गिकरण का महत्वपूर्ण गुण माना था, और नयी दुनिया और पुरानी दुनिया के बंदरों को एक उपसमूह में रखा जिसका नाम सरकोपिथेसाई या पूँछ वाले वानर दिया।[७] किन्तु कुछ बंदरों की प्रजातियाँ एसी भी हैं जिनमें पूँछ नाम-मात्र है, जैसे लघु-पुच्छ और जापानी बंदर।
नयी दुनिया के अधिकांश बंदरों में पूँछ ज्यादा लम्बी तो होती ही है, कुछ में यह पाँचवे हाथ के रूप में पकड़ने के काम आती है, जैसे लाल हाउलर बंदर।[३]
लाल मूंह वाले बंदर, जो पुरानी दुनिया में रहेसस बंदर के नाम से जाने जाते हैं, पूँछ छोटी भले ही होती है, किन्तु व्यस्क नर में यह प्रभावी नेता की पहचान है।[७] इस प्रजाति में रूनवाल ने पूँछ का कई व्यवहारिक स्थितियों में अध्ययन किया। और एक मुहावरा दुम दबाकर भागना, यहाँ ठीक बैठता है, एक बन्दर अपने से प्रभावशाली बन्दर को आते देख, दुम नीची कर दूसरी ओर चला जाता है।
शेर-पुच्छ बन्दर, जो दक्षिण भारत का खूबसूरत बंदर है, अपनी पूँछ से मशहूर है। इसकी काली देह और चेहरे के चारों ओर भूरे-सफ़ेद बालों का प्रभामंडल इसे शेर का रूप बनाने में सहायक है।[३] यह लंगुर एक जगा से दुसरी जगा छलांग लगाते हुए अगर पहुचने मे असमरथ हो जाऐ तो अपनी पुँछ के सहारे जमीन पे पाँव रखे बिना रासते से उतना वापस आ जाता है|यह इसलिए होता है कयोंकि इसकी पुँछ एक तरह का आकर्णन होता है|
सन्दर्भ[सम्पादन]
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लंगुर एक जगा से दुसरी छलांग लगाते हुए अगर पहुचने मे असमरथ हो जाऐ तो अपनी पुँछ के सहारे जमीन पे पाँव रखे बिना उतना वापस आ जाता है| कयो
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