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राजूसिंह चौहान

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जीवन परिचय[सम्पादन]

         मगरे की धरती पर हमारे राजपूत समाज में अनेकों वीर, साहसी, पराक्रमी, शूरवीर योद्धा हुए है। उनकी वीरता का इतिहास बड़ा ही रोंगटे खड़े कर देने वाला व प्रेरणादायी रहा है। हमको गर्व है कि हमारे उन महापुरूषों ने क्षेत्र व समाज का नाम रोशन किया है। वीर राजूसिंह चौहान उन्हीं वीर अमर सेनानियों में से एक है। डूंगरसिंह हीरावत के पुत्र राजूसिंह का जन्म राजसमंद जिले की भीम तहसील की बरार पंचायत के ग्राम जैमाजी के वास में सन् १७९६ ई. में हुआ।  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली क्रांति 1857 से पहले महानायक मंगल पांडे माने जाते हैं मगर उनसे भी पहले मगरे के लाल राजूसिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल बजाया था। मंगल पांडे ने जहां कारतूसों में चर्बी से सैनिकों का धर्मभ्रष्ट किए जाने की कोशिश पर गोली चलाई थी। वहीं राजूसिंह ने अंग्रेजों के नए कर व कानूनों और धर्म परिवर्तन की साजिशों के विरोध में बगावत की थी। पकड़े जाने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें १८ अप्रैल, १८४२ को ब्यावर में खुले में फांसी दे दी।


इतिहास[सम्पादन]

उस समय देश पर अग्रेंजों का शासन था। इस क्षेत्र की तहसील टॉडगढ़ थी। अंग्रेज अधिकारी एवं कर्मचारी गांवो में आतंक व भय फैलाते थे तथा राजस्व के नाम पर मनचाही लूटखसौट करते थे। राजूसिंह के परिवार का मुख्य पेशा खेती एवं पशुपालन ही था। एक दिन राजूसिंह प्रातःकाल गायों का दूध लेकर हामालों की वेर से आये तो देखा कि राजस्व वसूली के लिए पटवारी तेजू मलाला और तीन अंग्रेज कर्मचारी बरार की हथाई पर जूते पहने हुए बैठे है। राजूसिंह ने उन्हें हथाई का सम्मान रखने हेतु जूते नीचे खोलकर बैठने को कहा। सत्ता के कारिन्दे नाराज होकर राजूसिंह को उसके खेत का लगान पांच मण की बजाय पच्चीस मण प्रति खेत के हिसाब से निर्धारित कर परेशान करने लगे। राजूसिंह ने पटवारी से वाजिब राजस्व वसूली करने को कहा, परन्तु पटवारी नहीं माना तथा पद के मद में आकर राजूसिंह के साथ दुर्व्यवहार करने लगा। इस पर राजूसिंह ने भी अपनी रक्षा में पटवारी पर बल प्रयोग किया। पटवारी ने उक्त घटना की जानकारी और शिकायत टॉडगढ़ तहसीलदार को दी। तहसीलदार ने राजूसिंह को राजद्रोह के मुकदमे में गिरफ्तार कर पेश करने के आदेश जारी किये। राजूसिंह की गिरफ्तारी के लिए एक दल बरार रवाना हुआ और पुनः जूतों सहित बरार हथाई पर जा बैठे। वीर राजूसिंह एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उन्होंने क्रोधित होकर सभी को पीट डाला। वे सभी भयभीत होकर गिरते पड़ते नौ दो ग्यारह हो गये। कुछ देर बाद अधिक संख्या में अंग्रेज सिपाही आये और राजूसिंह को गिरफ्तार करके ले गए। उन्हें बरार के किले में कैद रखा गया। वीर राजूसिंह के मन में पटवारी से बदला लेने की भावना तीव्र हो उठी। अपनी इष्ट देवी की आराधना व राजूसिंह के प्रयास से भाकसी का दरवाजा खुल गया। बाहर आते ही राजूसिंह ने वहां के पहरेदारों को मारकर उनकी राइफिलें व कारतूस लेकर गढ़ की दीवार कूदकर आजाद हो गए तथा घर जाकर अपने भाईयों को सारी बात विस्तार से बता दी। इसके बाद अपने भाईयों को साथ लेकर रामणिया की मगरी की ओर निकल पड़े और पटवारी तेजू मलाला को ढूंढकर मौत के घाट उतार दिया। यह सूचना जब टॉडगढ़ में अंग्रेज अधिकारियों को हुई तो राजूसिंह को पकड़ने के लिए कर्नल हॉल ने एक बड़ी विशेष सैनिकों की टुकड़ी को बरार भेजी। इस टुकड़ी ने बरार व आस-पास में भय व आतंक का ऐसा वातावरण बनाया कि लोग थर-थर कांप उठे। इधर राजूसिंह ने अपने भाई सुजानसिंह व अन्य कुछ बहादुर युवकों का एक संघ बना लिया जिसमें मोटसिंह, देवीसिंह, नाथूसिंह, चतरसिंह बालोत (बरार) के अलावा, पूरणसिंह कानावत, गंगासिंह, पूरणसिंह मालावत (बरसावाड़ा) व अजबसिंह आपावत (मेड़ी) प्रमुख वीर सहयोगी थे। इस संघ की बहादुरी से अंग्रेज आशंकित व भयभीत थे, इसलिए सैनिक अभियान द्वारा इस संघ का दमन कर उन्हें अधीन करने के प्रयास तेज कर दिये। इस टुकड़ी ने बरार व उसके आस-पास के क्षेत्र में अनेकानेक जुल्म ढ़ाने लगी पर इन ग्रामवासियों से अंग्रेजो को राजूसिंह का कोई भी सुराग हाथ नहीं लगा। राजूसिंह व संघ के बहादुर अंग्रेजो की आंखो में धूल झोंक कर अरावली के बीहड़ व तंग क्षेत्रों में रहकर अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतारते रहे।


वीर हालूसिंह अंग्रेजो से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए –


         राजूसिंह के भाई हालूसिंह जी थे, जो कि खुजली रोग से ग्रसित होने के कारण वह छिपाला के समीप रामसिंह के दांते पर रहा करते थे। इनका भोजन प्रतिदिन ले जाने का काम इन्हीं का सालाजी (चरेड़ साख) किया करते थे। एक दिन जब चरेड़ खाना लेकर जा रहे थे, तब उसके पीछे अंग्रेज सैनिक लग गये और वहां जाकर पहाड़ी क्षेत्र पर घेरा डाल दिया। जब चरेड़ हालूसिंह को भोजन देकर लौटने लगा, तब हालूसिंह को कुछ हलचल महसूस हुई, अपरिचितों की आवाजें सुनी तो उसे खतरे की भनक लग गई और वह सतर्क हो गया। उसने वहां आस-पास घेरा डाले सैनिकों को देखकर वहां से निकलने के बजाय मुकाबला करने की ठान ली। ज्योंहि कुछ अंग्रेज सैनिक उसकी ओर आगे बढ़े तो हालूसिंह ने तलवार से हमला करके कुछ सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया, एक गोली हालूसिंह के पेट में लगी, जिससे आंत बाहर निकल आई। इस पर भी वह वीर विचलित नहीं हुआ और अपनी पगड़ी से अपने पेट को बांधकर भीषण संघर्ष करते हुए अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतारने लगे। बाद में कई गोलियां हालूसिंह के सीने में लगी और  हालूसिंह वीरगति को प्राप्त हो गया। धन्य है वह राजपूत वीर जिसने अकेले ही अंग्रेज सैन्य टुकड़ी से लोहा लिया और वीरगति को प्राप्त हुआ। 

अब अंग्रेज सैनिको ने मृत हालूसिंह को उठाकर टॉडगढ़ ले आये और इनका सिर काटकर खूंटाली बड़ी स्थान पर पेड़ पर लटका कर तैनात हो गये। अंग्रेज इसी तरह से क्षेत्र में भय व आतंक व्याप्त करना चाहते थे। ज्ञातव्य है कि मगरे के राजपूत स्वतंत्रता प्रिय रहे हैं। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व इस क्षेत्र के राजपूतों ने कभी भी पड़ौसी रियासतों की अधीनता स्वीकार नहीं की तथा सदैव स्वतंत्र रहे है। इन्हें अधिकार में लेने के लिए अंग्रेजों को भी साम-दाम दंड-भेद सभी तरह के हथकंड़े काम में लेने पड़े थे।


राजूसिंह ने भाई की हत्या का बदला लिया –


         राजूसिंह की मां प्रेम कंवर को जब पता चला कि उसका पुत्र हालूसिंह वीरतापूर्वक अंग्रेजो से युद्ध करते हुए बलिदान हो गया है तथा उसका सिर अंग्रेजो ने सार्वजनिक स्थान पर लटका रखा है तो उसने राजूसिंह को संदेश भिजवाया कि " जाओ, अपने भाई की हत्या का बदला लो और भाई के सिर को लाकर दाह संस्कार करो।" राजूसिंह ने मां के आदेश को शिरोधार्य कर अपने साथियों के साथ रात्रि में टॉडगढ़ पहुंचे और भूखे शेर की तरह सैनिकों पर टूट पड़े और सैनिकों को मार गिराया। वहां से भाई के सिर साथ लेकर दूर निकल गये। घास के ढेर पर शव का अंतिम संस्कार हो रहा था कि वहां अंग्रेज अधिकारी आ गये। अंग्रेज अधिकारियो ने अधजले सिर को लाकर पुनः टांग दिया। वहां दुगुनी बड़ी सख्यां में अंग्रेज सैनिकों को तैनात कर दिया। यह जानकारी राजूसिंह को फिर हुई तो पुनः योजना बनाकर उसी रात्रि को तीसरे पहर में अंग्रेज सैनिकों पर आक्रमण कर दिया और सैनिकों को गाजर मूली की तरह काटकर भाई का सिर साथ लेकर कातर की घाटी (बराखन) होते हुए मांगटजी के दांता के समीप पहुंचकर वहां सिर का दाह संस्कार किया। कुछ देर बाद वहां कर्नल हॉल पीछा करते हुए सेना के साथ आ पहुंचे। इन्हें मांगटजी के पहाड़ से उतरते समय राजूसिंह की टोली ने देख लिया था। राजूसिंह के सहयोगी अजबसिंह ने खाखरे के पेड़ की ओट लेकर अचूक निशाना तानकर बंदूक से ऐसी गोली चलाई कि एक सीध में चल रहे १६ अंग्रेज सैनिक एक साथ मारे गए। धन्य है वह वीर और उसकी निशानेबाजी व अद्भूत वीरता जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है। बहादुरी की ऐसी मिसालें मेरवाड़ा के राजपूतों के इतिहास में अनेकों रही है। इस अकस्मात् आक्रमण पर कर्नल हॉल हक्का बक्का रह गया और सैनिकों को स्थिति लेकर धावा बोलने का आदेश दिया। इस मुकाबले में राजूसिंह के परम सहयोगी अजबसिंह मारा गया जिसकी एक गोली से १६ अंग्रेज सैनिक शिकार हुए थे। मौका देखकर इस मृत सहयोगी को उठाकर राजूसिंह व सहयोगी वहां से निकल गए और वर्तमान में सारण बोरीमादा गांव के समीप वायड़ क्षेत्र में लाकर मृत सहयोगी का सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया। इसी वायड़ के जंगल से इन्हें भगवानपुरा के कुंवर मांडिया मुकलावा ले जाते हुए मिले। मांडिया की कंवरानी ने यहीं पर राजूसिंह के राखी का धागा बांध कर अपना धर्मभाई बनाया था। राजूसिंह ने अपनी इस बहन को अपनी सारी स्थिति बताकर कहा कि "इस समय तो मैं आपकी ज्यादा सेवा करने में असमर्थ हूं, फिर भी मेरे लायक सेवा हो तो बता दो।" 

बहन ने भाई से कहा कि 'हमें इस जंगल से सुरक्षित बाहर निकालने में सहयोग करे।" कंवरानी ने एक पत्र अपने पिता के नाम लिखा कि राजूसिंह चौहान मेरा धर्म भाई है, आवश्यकता पड़े तो इनको सहयोग करें। यह पत्र कंवरानी ने राजूसिंह को दिया और कहा कि "आवश्यकता पड़े तो यह पत्र दिखाकर मेरे पिताजी से सहयोग ले लेना।" राजूसिंह ने भेंट स्वरूप एक अंगूठी अपनी इस बहन को दी और कहा कि "रास्ते में कोई परेशानी आए तो बता देना कि वह राजूसिंह की बहन है।" राजूसिंह ने अपने एक सहयोगी को दोनों को जंगल से बाहर तक सुरक्षित पहुंचाने का आदेश किया। इस तरह राजूसिंह ने इन्हें सुरक्षित जंगल से निकलवाने में सहायता की।


राजूसिंह मांडिया पहुंचे और ठाकुर की मदद ली –


         इस जंगल में राजूसिंह व इनके संघ के लिए रसद सामग्री की कमी आई तो वे मारवाड़ के गांव सारण चले गए। किसी मुखबिर ने यह सूचना अंग्रेजो को पहुंचा दी। कर्नल हॉल ने अपने सिपाहीयों को लेकर संग नदी के तट के समीप राजूसिंह व इनके साथियों पर हमले किये, परन्तु वे इनसे बचते हुए मांडिया जा पहुंचे। राजूसिंह ने मांडिया के ठाकुर रामसिंह को अपनी धर्म बहन का पत्र देकर कहा कि हमारे पीछे अंग्रेज सेना आ रही है, यहां से सुरक्षित निकालने में सहायता करे। इधर रात्रि का समय हो जाने से अंग्रेज सेना ने गांव के चारो ओर मजबूत घेरा डाल दिया। ठाकुर ने चतुराई की तथा राजूसिंह को दूल्हा बनाया और उनके सहयोगियों को बाराती बना कर प्रातःकाल से पूर्व ऊंटो पर सवार कर इन्हें गांव से बाहर निकाल दिया। कर्नल हॉल ने प्रातःकाल गांव की तलाशी ली तो उन्हें कुछ नहीं मिला। बाद में जानकारी हुई कि ऊंटो पर जा रही बारात ही राजूसिंह का दल था। 


कर्नल हॉल को जान बचाकर भागना पड़ा ==


         राजूसिंह व इनके सहयोगी अरावली के पहाड़ी क्षेत्र में पहुंचे और पहाड़ी की एक तंग घाटी में मोर्चा लेकर बैठ गए। मांडिया से अंग्रेज सेना राजूसिंह का पीछा करते हुए ज्योहि तंग पहाड़ी घाटी के मध्य से गुजरने लगी तो अचानक राजूसिंह व उसके साथियों ने हमला कर दिया जिसमें कई अंग्रेज सैनिक मारे गये, सैनिकों की कम संख्या देख हॉल ने महसूस किया कि कहीं यहीं मारे न जाए, यह सोच कर कर्नल हॉल भाग कर टॉडगढ़ लौट आया। 


राजूसिंह ने १२ वर्षो तक किये छापामार युद्ध[सम्पादन]

         कर्नल हॉल, कर्नल टॉड व कर्नल डिक्सन के साथ राजूसिंह १२ वर्षो तक छापामार युद्ध करते रहे। राजूसिंह ने इस दौरान अपने सहयोगियों से मिलकर अंग्रेजों की विभिन्न चौकी-छावनियों पर हमले किये तथा अनेक अग्रेंज सैनिकों को मौत के घाट उतार दिये। इस तरह इस युद्ध में अंग्रेज सेना बुरी तरह परेशान व आतंकित रही। अंग्रेज सेना राजूसिंह और उसके संघ के कारण मगरे पर पूर्ण आधिपत्य पाने में कामयाब नहीं हो पा रही थी। 

इस तरह ब्रिटिश शासन से १२ वर्ष के लम्बे संघर्ष के उपरान्त एक दिन अग्रेंजों ने षडयंत्रपूर्वक राजूसिंह को गिरफ्तार कर लिया और उसे असहनीय यातनायें देते हुए ब्यावर लाकर १८ अप्रेल, १८४२ ई. को सैकड़ो लोगों के सामने फांसी दे दी गयी जिससे वीर राजूसिंह शहीद हो गए। धन्य है ऐसे वीर जिसने आन-बान शान के लिए विदेशी शासकों के अन्याय के प्रति संघर्ष किया तथा वीर क्षत्रिय राजपूत जाति का नाम रोशन किया। उसने इस उक्ति को चरितार्थ किया ☞ माई जणे तो एहड़ा जण, के दाता के सूर। नहीं तो याते बांझ भली, वृथा गंवाये नूर।। आन, बान और शान के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले मगरे के वीर राजूसिंह चौहान की वीरता और पराक्रम को स्मरण करते हुए संपूर्ण मगरे क्षेत्र में फाग के लोकगीतों के रूप में श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।

सन्दर्भ[सम्पादन]

https://m.dailyhunt.in/news/india/hindi/news+view-epaper-newsview/angrejo+se+jang+ladane+vale+pahale+krantikari+the+shahid+raju+ravat-newsid-85999613



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