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सभ्यता अध्ययन केन्द्र

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दिल्ली-स्थित सभ्यता अध्ययन केन्द्र वर्तमान समस्याओं को उनके सही परिप्रेक्ष्य में समझने और उनका समाधान तलाशने का तथा दुनिया की राजनीति, इतिहास और दर्शन को मौलिक सन्दर्भों और स्रोतों से देखने और समझने का एक प्रयास है।

परिचय[सम्पादन]

विगत कई शताब्दियों में विश्व-परिदृश्य में यूरोपीय देशों और उनकी औपनिवेशिक मानसिकता के उभार ने पूरे विश्व के इतिहास और दर्शन को प्रभावित किया है। यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि यूरोप के लोग केवल कुछ सौ वर्ष पहले तक दुनिया से पूरी तरह अनभिज्ञ थे। उनकी दुनिया भूमध्यसागर के इर्द-गिर्द ही घूमती थी। इसके परे का पूरा संसार उनके लिए केवल इण्डिया ही था। कोलम्बस और वास्को डि गामा के अभियानों के बाद जब उन्हें दुनिया के अन्य देशों का पता चला, तो भूख और अभाव के मारे यूरोपीयों ने पहले तो उन सभी देशों को लूटने और वहाँ की सभ्यताओं को नष्ट करने का अभियान चलाया। जब थोड़ी भूख शांत हुई तो वहाँ के इतिहास, दर्शन आदि को समझने की कोशिश प्रारम्भ की। भौगोलिक दूरी के साथ-साथ सांस्कृतिक तथा सभ्यतागत दूरी के कारण भाषा और परम्परा की समझ के अभाव में वे जितना समझ पाए, उसे ही सम्पूर्ण बताकर उन्होंने अपने अधूरे ज्ञान को पूरी दुनिया पर थोपने का प्रयास किया। इस क्रम में उन्होंने मौलिक स्रोतों की भरपूर उपेक्षा की, स्थानीय साहित्य के साथ खिलवाड़ किया, नया कुछ गढ़ने की उत्सुकता में पर्याप्त अटकलें लगाईं और अटकलों को प्रमाणित करने के लिए स्वयं द्वारा विकसित आधुनिक विज्ञान का सहारा लिया।

इसका सबसे बड़ा शिकार भारत हुआ; क्योंकि विगत तीन सहस्राब्दियों से यूरोप के सपनों में भारत ही दिखता था। भारत की समृद्धि और वैभव के किस्से यूरोप में लोककथाओं की तरह प्रचलित थे। इसलिए भारत के बारे अधिकाधिक जानने की पूरे यूरोप में एक ललक विद्यमान थी। भारत आनेवाले प्रारम्भिक यूरोपीय यात्रियों में भारत को जानने से अधिक उसके बारे में बताने की अधीरता थी। इसलिए सच-झूठ और मनगढ़ंत किस्सों की यूरोप में बाढ़ आ गई। दुर्भाग्यवश उनके उन्हीं किस्सों को सच मानकर उससे बनी धारणाओं के आधार पर भारत को जानने की कोशिशें की जाने लगीं। यूरोपीयों की अभिजात्य मानसिकता भी उन्हें भारत को हीन साबित करने के लिए प्रेरित कर रही थी। अपनी अभिजात्यता के घमण्ड में उन्होंने जो कुछ विगत दो शताब्दियों में लिखा-पढ़ा, वह चाहे मैकाले-जैसे साम्राज्यवादियों का हो या फिर विलियम जोन्स-जैसे प्राच्यवादियों का— दोनों ही न तो भारत के समाज तथा सामाजिक व्यवस्थाओं को ठीक से समझ पाते थे और न ही उसे ठीक से प्रकट करते थे। दुर्भाग्यवश उनके लिखे को ही प्रमाण मानकर आज भारत के इतिहास, सामाजिक व्यवस्थाएँ, राजनीति आदि पर चिन्तन किया जाता है। स्वाभाविक ही है कि इस पद्धति में शिक्षित-दीक्षित लोग यूरोपीय और अमेरिका सरीखे नवयूरोपीय देशों को ही अपना आदर्श मानें।

यह देखना आज दुखद प्रतीत होता है कि दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता माने जानेवाले अपने देश में किसी भी नीति-निर्माण के लिए यूरोप और अमेरिका को ही आदर्श माना जाता है। यह मानना आज विकसित मानसिकता का लक्षण माना जाता है कि अपना देश समाजजीवन के सभी आयामों में अत्यंत ही पिछड़ा रहा है और इसलिए यदि हमें आगे बढ़ना है तो पश्चिमी (यूरोपीय और अमेरिकी) मानकों को ही अपनाना होगा। सवाल है कि क्या वास्तव में ऐसा ही है? क्या भारतीय चिन्तन और परम्पराएँ वाकई कालबाह्य और विकासविरोधी हैं? क्या यूरोपीय और अमेरिकी चिन्तन वास्तव में मानवहितकारी हैं? शोधपरक दृष्टि डालने से स्थिति इससे एकदम विपरीत नजर आती है। वास्तव में यूरो-अमेरिकी चिन्तन से मानव और प्रकृति का अहित ही अधिक हुआ है। उनकी शब्दावली, चिन्तन, पद्धतियाँ, रचनाएँ आदि सभी किसी-न-किसी रूप में प्रकृति को बाधित करती हैं। भारतीय शब्दावली, चिन्तन, पद्धतियाँ, रचनाएँ आदि सभी मानव तथा प्रकृतिपोषक हैं। प्रश्न उठता है कि क्या हम मानव और प्रकृति के लिए हानिकारक चिन्तन और रचनाओं को सभ्यता और संस्कृति कह सकते हैं? यदि हाँ, तो फिर सभ्य और असभ्य तथा संस्कृति तथा विकृति में अंतर ही क्या हुआ? इसलिए पहली आवश्यकता तो सभ्यता और संस्कृति को ही समझने की है।

विश्व का इतिहास पढ़ते समय हम अक्सर सभ्यताओं की चर्चा से दो-चार होते ही हैं। सामान्यत: इतिहास होता भी सभ्यताओं का ही है। सैमुएल हटिंगटन ने जब सभ्यताओं के संघर्ष का अपना सिद्धान्त दिया, तब दुनिया का ध्यान इस ओर अधिक प्रमुखता से गया है। सभ्यता का सामान्य अर्थ होता है समाज के आचार-विचार की सुसंगत और लोकहितकारी व्यवस्था। यह व्यवस्था मनुष्यों के आचार-विचार के निरंतर परिष्कार से बनती है। प्रश्न है कि यदि वाकई सभ्यता आचार-विचार के परिष्कार से पैदा होती है, तो इनमें संघर्ष क्यों और कैसे हो सकता है? यूरोप लम्बे समय तक सभ्यता की परिभाषा नियत करने की समस्या से जूझता रहा। वहाँ एक समय रोमन और ग़ैर-रोमन में ही पूरी दुनिया को बाँटा गया था और रोमनों को सभ्य तथा शेष विश्व को असभ्य माना जाता था। आज हम जानते हैं कि वह कोई सही आधार नहीं था। फिर उन्होंने बौद्धिक विकास को सभ्यता का आधार माना। कुछेक यूरोपीय चिन्तकों ने आर्थिक विकास को सभ्यता का आधार मान लिया। आज भी सभ्यता की उनकी समझ अस्पष्ट और अधूरी है। इसलिए सभ्यताओं के संघर्ष का उनका सिद्धान्त भी सही नहीं है। सभ्यताओं में संघर्ष नहीं, संवाद होता है। संघर्ष असभ्यों में अथवा सभ्यों तथा असभ्यों में होता है। कम-से-कम भारत की संकल्पना तो यही है।

इन प्रश्नों पर विचार करते समय ध्यान में आता है कि सोलहवीं-सत्रहवीं शती के बाद के पश्चिमी विद्वानों ने सभ्यता, संस्कृति और धर्म समेत सभी मौलिक शब्दों की नयी परिभाषाएँ गढ़ीं। उन परिभाषाओं को सही साबित करने के लिए उन्होंने पूरी दुनिया के इतिहास को मनमाने तरीके से लिखा और अपने अल्प ज्ञान व दृष्टि को पूरी दुनिया पर थोपने का प्रयास किया। दुनिया को देखने का उनका नजरिया बाइबिल के दायरे में होता था या फिर बाइबिल के विरोध के दायरे में। साथ ही इसमें उनका साम्राज्यवादी दृष्टिकोण भी शामिल रहता था। इस कारण उन्होंने न केवल दुनिया के गैर-यूरोपीय समाजों के दार्शनिक, सामाजिक और राजनीतिक पक्ष की अवहेलना की, बल्कि उन्हें दबाने-छिपाने और नष्ट कर डालने तक का काम किया।

वस्तुत: देखा जाए तो पश्चिम में दो प्रकार के विद्वानों का समूह मिलता है। एक तो वे हैं जो यूरोपीय चर्च की सत्ता के इशारे पर और साम्राज्यवादी मानसिकता से अनुसन्धान और लेखन में जुटे थे। सामान्यत: उनका इतिहासलेखन स्वयं की श्रेष्ठताबोध से ग्रस्त और दूसरों के प्रति हीन भाव से भरा है। इसलिए उनके लिए विगत दो-तीन शताब्दियों का इतिहास ही महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि उनकी समस्त उपलब्धियाँ इसी दौर की हैं। इससे पहले की समस्त यादों को या तो मिटा देने की कोशिश की गई या उन्हें कमतर आँकने की कोशिश की गई। परन्तु इनसे इतर सत्य के अन्वेषकों की भी वहाँ कमी नहीं रही। उन सत्यप्रेमी विद्वानों ने सत्य को उजागर करने के लिए अनुसन्धान और लेखन-कर्म अपनाया।

आज दोनों ही प्रकार के अनुसन्धान और लेखन पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हैं। दुर्भाग्यवश अपना देश लगभग दो शताब्दियों तक अंग्रेजों के अधीन रहा और उस दौरान यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था पर उनका पूरा कब्जा रहा। उन्होंने भारत की प्राचीन व स्थापित शिक्षा-व्यवस्था को नष्ट करके अपनी प्रणाली यहाँ स्थापित की थी और उसके अनुसार ही यहाँ अध्ययन-अध्यापन आज तक किया जाता है। इस कारण यहाँ हम अपने देश भारत के साथ-साथ पूरे विश्व का जो इतिहास पढ़ते-पढ़ाते हैं, वह पाश्चात्यों के उसी अभिजात्यबोध से ग्रस्त आधा-अधूरा लिखा इतिहास है। उसमें सत्य का अंश कम है और वह भारत की यथार्थता और श्रेष्ठता को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं करता। यह स्थिति केवल इतिहास ही नहीं, वरन् राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, दर्शन, समाजशास्त्र, विधि, नृतत्त्वविज्ञान, भाषाविज्ञान, मनोविज्ञान के साथ-साथ गणित, भौतिक व रसायनविज्ञान, जीवविज्ञान आदि सभी विषयों के साथ है। इस कारण आज देश के सामने जो भी समस्याएँ आती हैं, उनके समाधान के लिए हमारे नीति-निर्माता यूरोप और अमेरिका की ओर देखने लगते हैं। वे समाधान नयी समस्याओं को जन्म देते हैं जो पुरानी समस्याओं से कहीं अधिक भयावह होती हैं।

इसलिए इस सभ्यता अध्ययन केन्द्र की आवश्यकता अनुभव की गई ताकि इतिहास, राजनीतिविज्ञान, दर्शन, सृष्टिविज्ञान, शिक्षाशास्त्र, भाषाविज्ञान, मनोविज्ञान, गणित, भौतिकविज्ञान, रसायनविज्ञान, जीवविज्ञान, तकनीकी आदि के बारे में सत्य का अनुसन्धान किया जा सके। ऐसा नहीं है कि भारतीय दृष्टि से सभ्यताओं के अध्ययन का यह प्रथम प्रयास है। हमारे पूर्वजों ने ऐसे अनेकविध प्रयास पहले भी किए हैं। उन्होंने बड़ी संख्या में शोध करके पुस्तकें भी लिखी हैं। उन्हें तलाशना, पढ़ना और उनकी परम्परा को आगे बढ़ाना ही इस केन्द्र का उद्देश्य है। साथ ही हम भारतीय स्रोतों से भारत को और शेष विश्व को उनके मौलिक स्रोतों या फिर वहाँ के मौलिक लेखन के आधार पर जानने-समझने और प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं।

गतिविधियाँ[सम्पादन]

शोध-कार्य[सम्पादन]

भारत के प्राचीन तथा पारम्परिक ज्ञान और विश्व-सभ्यताओं का अनुसन्धान करना और उसके आधार पर विज्ञान और समाजशास्त्र की विभिन्न धाराओं को पुनर्परिभाषित और व्याख्यायित करने हेतु शोध-कार्य किया जा रहा है। साथ ही आज की समस्याओं को भी इस भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करते हुए उनके भारतीय समाधान ढूँढने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। वर्तमान में केन्द्र द्वारा निम्नलिखित विषयों पर कार्य किया जा रहा है :

इतिहास[सम्पादन]

भारतवर्ष का इतिहास : इसके तहत भारतवर्ष के इतिहास के गौरवपूर्ण पक्ष को उभारने और सामने लाने का प्रयास किया जा रहा है। भारतवर्ष की पराधीनता के मिथक, राजनीतिक पराजयों के मिथ्यात्व और भारतीय योद्धाओं की वीरताओं, विजय-अभियानों तथा शासन-पद्धति पर शोध किया जा रहा है। वर्तमान में भारतवर्ष के विगत पाँच हजार वर्ष के आर्थिक इतिहास को लिखने का एक प्रयास चल रहा है। इसी प्रकार प्राचीन भारत और भूगोलविज्ञान पर भी एक शोध प्रारम्भ किया जा रहा है। प्राचीन भारत में राजनीतिविज्ञान और राजनीतिक विचारों के इतिहास पर एक शोध-कार्य समानांतर रूप से चलाया जा रहा है। भारत की योद्धा-वृत्ति और विभिन्न योद्धा राजाओं के इतिहास पर भी एक शोध-कार्य जारी है।

विश्व का इतिहास : भारत के साथ-साथ विश्व के इतिहास का भी अध्ययन काफी महत्त्वपूर्ण है। विश्व के इतिहास को हम चार भाग में बाँट सकते हैं। पहला, यूरोप का इतिहास और दूसरा अमेरिका का इतिहास, तीसरा अफ्रीका का इतिहास और चौथा भारतेतर एशिया का इतिहास। इसमें से वर्तमान में केंद्र द्वारा यूरोप और भारतेतर एशिया के इतिहास पर शोध-कार्य जारी है।

विश्व-इतिहास का कई दृष्टिकोण से दुनिया में अध्ययन किया जाता है, परन्तु अभी तक किसी ने विश्व इतिहास का पारिस्थितिकी के दृष्टिकोण से अध्ययन नहीं किया है। दुनिया के पारिस्थितिकी-तंत्र का अध्ययन तो किया जाता है, परंतु इस तंत्र से दुनिया का इतिहास किस प्रकार प्रभावित होता रहा है, इस पर कोई समग्र कार्य अभी उपलब्ध नहीं है। कुछ छिटपुट कार्य हुए हैं, परंतु वे कुछेक क्षेत्र विशेष के अध्ययन तक सीमित हैं। सभ्यता अध्ययन केंद्र पारिस्थितिकी-तंत्र के प्रभावों की दृष्टि से दुनिया के इतिहास पर एक शोध प्रारम्भ कर रहा है।

यूरोप का इतिहास : आज हम यूरोप का वही इतिहास पढ़ते हैं, जो वे अपने बारे में हमें पढ़ाना चाहते हैं। यूरोप के वास्तविक इतिहास का अध्ययन और वह भी गैर-यूरोपीय चश्मे से करना, काफी रोचक भी है और हैरतअंगेज भी। ईसाइयत के प्रादुर्भाव के पहले के यूरोप और ईसाइयत की सत्ता के फैलने के बाद के यूरोप में काफी कुछ है जो छिपा हुआ है। ईसाइयत ने किस प्रकार यूरोप की वास्तविक संस्कृति को नष्ट किया और फिर वहाँ अज्ञान का कैसा अंधकार फैलाया, उस अंधकार-युग से यूरोपीय लोग कैसे बाहर निकले, वहाँ से बाहर निकलने के क्रम में उन्होंने दुनिया में कैसी लूट और हिंसाचार मचाया, यह सब विवरण काफी लोमहर्षक है। यूरोप के इतिहास को ग़ैर-यूरोपीय दृष्टि से लिखने का एक प्रयास केन्द्र द्वारा किया जा रहा है। इस पर केन्द्र द्वारा दो-दिवसीय कार्यशाला भी आयोजित किया जा चुका है।

भारततेर एशिया का इतिहास : भारत से इतर एशिया का इतिहास काफी रोचक और प्रेरणास्पद है। इस इतिहास को भी साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने काफी विकृत किया है। उदाहरण के लिए चंगेज ख़ान के बारे में इतिहास के अच्छे-अच्छे विद्यार्थियों को सही जानकारी नहीं है। चंगेज ख़ान को एक नृशंस हत्यारे, लुटेरे और खानाबदोश के रूप में चित्रित किया जाता है। जबकि वह न केवल दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य का संस्थापक रहा है, बल्कि सिल्क रूट के माध्यम से तकनीकी और व्यापार की क्रान्ति भी उसने की थी। इस प्राचीन रेशम-मार्ग पर एक शोध-कार्य जारी है। केन्द्र सड़क-मार्ग से रेशम मार्ग पर एक लम्बी-यात्रा की योजना भी बना रहा है। साथ ही भारत-चीन सम्बन्धों के इतिहास पर एक शोध-कार्य प्रगति पर है। इस पर शीघ्र ही एक पुस्तक प्रकाशन के लिए प्रस्तावित है।

भारतीय गणित[सम्पादन]

वर्तमान में देश में गणित का जो भी पाठ्यक्रम है, वह छात्रों के लिए नितांत शुष्क और कठिन माना जाता है। साथ ही यदि हम ध्यान से देखें, तो उसमें ईसाई-मान्यताओं को भी प्रकारांतर से घुसाया गया है। भारतीय पद्धति से गणित काफी सरल और व्यावहारिक जीवन में उपयोगी हुआ करती थी। यदि हम अंकगणित को छोड़ दें, तो आज जो गणित हम पढ़ते हैं, यदि हम नौकरी नहीं करें, तो उसका उपयोग नहीं के बराबर ही होता है। और जिस गणित की भारतीय करीगरों को आवश्यकता पड़ती है, वह कहीं नहीं पढ़ाया जाता। ऐसे में भारतीय गणित परम्परा के आधार पर गणित का पाठ्यक्रम विकसित करने की आवश्यकता है। भारतीय गणित के ग्रंथों का एक भाष्य कोलब्रुक ने उन्नीसवीं शताब्दी में किया था। उसके बाद उस पर कोई काम नहीं हुआ था। कर्नाटक के एक इंजीनियर वेणुगोपाल ने भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, श्रीधर आदि का अनुवाद करने का सराहनीय प्रयास किया है। उन्होंने दस से अधिक ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें से कुछ प्रकाशित हुए हैं और कुछ प्रकाशित किए जाने हैं। केन्द्र भारतीय गणित पर किए गए ऐसे सभी प्रयासों को एकत्र कर उनके आधार पर एक समग्र पाठ्यक्रम बनाने का प्रयास कर रहा है।

प्रकाशन[सम्पादन]

पुस्तकें[सम्पादन]

केंद्र द्वारा किए जा रहे शोध-कार्यों से तैयार पुस्तकों का प्रकाशन और उनका प्रचार-प्रसार एक बड़ा कार्य है। केन्द्र से जुड़े शोधार्थियों द्वारा समय-समय पर सामयिक प्रश्नों पर गम्भीर और मौलिक लेखन किया जाएगा जिन्हें केंद्र प्रकाशित करेगा। वर्तमान में ‘भारत-चीन सम्बन्ध, इतिहास और वर्तमान’ पर एक पुस्तक तैयार की जा रही है। एक पुस्तक भारत के आर्थिक इतिहास पर तैयार की जा रही है। एक पुस्तक विश्व सभ्यता : एक भारतीय दृष्टि पर भी तैयार की जा रही है। एक और पुस्तक विश्व इतिहास : पारिस्थितिकी-तंत्र के आलोक में पर भी कार्य शुरू किया गया है। प्राचीन भारत में भूगोल पर भी एक पुस्तक तैयार करने की योजना है। गणित के इतिहास पर एक पुस्तक प्रकाशित करने की दिशा में कार्य प्रगति पर है। ऐसी अनेक पुस्तकें हैं जो काफी समय पहले लिखी गई थीं और वे अभी भी बहुत काम की हैं। परन्तु उनमें से बहुत-सी पुस्तकें आज केवल ऑनलाइन पीडीएफ में ही उपलब्ध हैं। उनमें से कुछेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकों को प्रकाशित करना भी केन्द्र की योजनाओं में शामिल है।

शोध-पत्रिका[सम्पादन]

सभ्यता-संवाद के नाम से एक त्रैमासिक शोध-पत्रिका का प्रकाशन वर्ष 2019 से किया जा रहा है। इसमें उच्च कोटि के गवेषणात्मक, आलोचनात्मक तथा समीक्षात्मक शोध-निबन्ध प्रकाशित किए जाते हैं। भारतीय दृष्टि से भारतीय नीतियों, समस्याओं, इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र, आदि पर सन्दर्भयुक्त तर्कपूर्ण तथा तथ्यात्मक शोध-आलेख ही इसमें प्रकाशित किए जाते हैं। जाने-माने इतिहासकार और पत्रकार रवि शंकर इसके सम्पादक तथा इतिहासकार गुंजन अग्रवाल इसके कार्यकारी सम्पादक हैं।

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